________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 111 अर्थस्यासंभवे भावात्प्रत्यक्षेपि प्रमाणताम् / तदव्याप्तं प्रमाणत्वमर्थवत्त्वेन मन्यताम् // 21 // प्राप्यार्थापेक्षयेष्टं चेत्तथाध्यक्षेपि तेस्तु तत्। तथा वाध्यक्षमप्यर्थानालंबनमुपस्थितम् // 22 // प्रत्यक्षं यद्यवस्त्वालंबनं स्यात्तदा नार्थं प्रापयेदितिचेत्अनुमानमवस्त्वेव सामान्यमवलंबते। प्रापयत्यर्थमित्येतत्सचेतानाप्य मोक्षते // 23 // तस्माद्वस्त्वेव सामान्यविशेषात्मकमंजसा। विषयीकुरुतेध्यक्षं यथा तद्वच्च लैंगिकम् // 24 // सर्वं हि वस्तु सामान्यविशेषात्मकं सिद्धं तद्व्यवस्थापयत्प्रत्यक्षं यथा तदेव विषयीकुरुते तयानुमानमपि विशेषाभावात् / तथा सतिस्मृत्यादिश्रुतपर्यंतमस्पष्टमपि तत्त्वतः। स्वार्थालंबनमित्यर्थशून्यं तन्निभमेव नः // 25 // करोगे तो प्रत्यक्ष में भी अर्थ की अपेक्षा से वह प्रमाणपना इष्ट किया जाएगा। किन्तु अवलम्ब कारण की अपेक्षा अर्थसहितपना प्रत्यक्ष में नहीं माना जाए तो प्रत्यक्षप्रमाण भी अर्थ को आलम्बन नहीं करने वाला उपस्थित होता है। अर्थात् जिस प्रकार अनुमान ज्ञान में पदार्थ ग्रहण किए जाते हैं उसी प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान में भी अर्थ का ग्रहणं होना चाहिए परन्तु बौद्धों ने प्रत्यक्ष में अर्थग्रहण स्वीकार नहीं किया है। . प्रत्यक्ष प्रमाण यदि वस्तुभूत स्वलक्षण का आलंबन नहीं करेगा तो वह अर्थ को प्राप्त नहीं कर सकेगा (अत: प्रत्यक्ष तो वस्तु को आलंबन कारण मानकर उत्पन्न होता है। अन्य ज्ञान नहीं)। इस प्रकार बौद्ध के कहने पर आचार्य कहते हैं- अनुमान प्रमाण अवस्तुभूत सामान्य को ही अवलम्ब करता है, किन्तु अर्थ को प्राप्त करा देता है। इस प्रकार कहने वाला सहृदय (बौद्ध) आज नहीं छूट सकेगा। अर्थात् अनुमान के समान प्रत्यक्ष भी अवस्तु को आलंबन करता हुआ अर्थ को प्राप्त करा देगा। फिर प्रत्यक्ष को सावलम्बन क्यों माना जाता है? अत: परिशेष में यही सिद्ध होगा कि सामान्य विशेष आत्मक वस्तु को ही निर्दोष रूप से जैसे प्रत्यक्ष विषय करता है, उसी के समान लिंगजन्य अनुमान प्रमाण भी सामान्य विशेष आत्मक वस्तु को ही विषय करता है // 2324 // ... सम्पूर्ण वस्तुएँ सामान्य विशेष उभय आत्मक सिद्ध हैं। अनुगत आकार और व्यावृत्त आकार पदार्थों में पाये जाते हैं अत: उन वस्तुओं की व्यवस्था करता हुआ प्रत्यक्ष जिस प्रकार उस वस्तु को ही विषय करता है, उसी प्रकार अनुमान भी सामान्य विशेषात्मक वस्तु को जानता है। उन दोनों ज्ञानों में विशेषगुण की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है और इस प्रकार सिद्ध हो जाने पर - स्मृति को आदि लेकर श्रुतज्ञानपर्यंत परोक्ष ज्ञान वस्तुत: अस्पष्ट ही है, तो भी स्वयं अपने को और अर्थ को आलंबन करने वाले सिद्ध हैं जो ज्ञान अपने ग्राह्य विषय से रहित है, वह हम स्याद्वादियों के यहाँ तदाभास ही माना गया है॥२५॥