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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 26 पूर्वपूर्वपर्यायादुत्पत्तेः कथमसौ कार्योत्पत्तिपूर्वकालभावी पर्यायकलापोऽहेतुको नाम यत: कार्यजन्मनि तस्यासत्त्वं पूर्वं सतोऽपि विरुध्यते तदा वाऽसत्त्वेपि पूर्वं सत्त्वं न घटते। द्वितीयपक्षे तु यथा प्रागभावस्याहेतुकत्वं तथा नित्यं सत्त्वमपि द्रव्यमात्रस्य कदाचिदसत्त्वायोगात् / कार्योत्पत्तौ कार्यरहितत्वेन प्राच्येन रूपेण द्रव्यमसदेवेति चेत्, नन्वेवं कार्यरहितत्वमेव विशेषणमसन्न पुनद्रव्यं तस्य तन्मात्रस्वरूपत्वाभावात्। तुच्छ: प्रागभावो न भावस्वभाव इति चायुक्तं, तस्य कार्योत्पत्ते: पूर्वमेव सत्त्वविरोधात् कार्यकाले वा सत्त्वायोगात्, सत्त्वासत्त्वविशेषणयोर्भावाश्रयत्वदर्शनात् / तथा च न प्रागभावस्तुच्छः सत्त्वासत्त्वविशेषणाश्रयत्वाद् द्रव्यादिवत् पूर्व होने वाली शिविका आदि पर्यायों की परम्परारूप में अवस्थित है या द्रव्यरूप से अवस्थित है। यदि प्रथम पक्ष (शिविका आदि पर्यायों की परम्परा रूप से अवस्थित है तो) में पूर्व-पूर्व पर्याय से उत्पन्न होने से कार्य उत्पत्ति का पूर्व काल भावी पर्यायों के समूहरूप वह प्रागभाव अहेतुक कैसे हो सकता है? क्योंकि ऐसा मानने पर कार्यजन्म में प्रागभाव की असत्ता और पूर्व में उसका सत्त्व मानना विरुद्ध पड़ता है। तथा असत्त्व होने पर पूर्व सत्त्व घटित नहीं होता है। यदि दूसरा पक्ष-घट उत्पत्ति के पूर्व प्रागभाव को द्रव्य मात्र रूप मानते हो तो जैसे प्रागभाव का अहेतुकत्व है-उसी प्रकार उसके नित्यत्व और अस्तित्व भी है-क्योंकि द्रव्य मात्र के कदाचित् भी असत्ता नहीं होती। क्योंकि पर्यायों की अपेक्षा निरंतर उत्पाद व्यय होते हुए भी द्रव्य निरंतर ध्रौव्य रहता है अर्थात् उसका कभी नाश नहीं होता। अत: द्रव्य रूप होने से प्रागभाव के भी अनादिपना, अहेतुकपना, नित्यत्व और अस्तित्व स्वीकार करना पड़ेगा। वर्तमान कार्य की उत्पत्ति में पूर्व पर्याय रूप कार्य से रहितत्व हो जाने से पूर्ण रूप से द्रव्य असत् ही है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार कार्यरहितत्व विशेषण द्रव्य में विद्यमान नहीं है, क्योंकि द्रव्य के पर्यायरूपत्व मात्र स्वभाव का अभाव है। अर्थात्-पूर्व पर्याय के वर्तमान में न रहने से द्रव्य का अभाव नहीं होता है। क्योंकि द्रव्य केवल पर्याय रूप ही नहीं है, अपितु गुणों और पर्यायों का पिण्ड वैशेषिक कहता है कि प्रागभाव भावस्वभाव (पर्याय-समुदाय रूप वा द्रव्यरूप) नहीं है, अपितु तुच्छ (निरुपाख्य अभाव) रूप है। आचार्य कहते हैं-ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है। क्योंकि, उस प्रागभाव के कार्य उत्पत्ति के पूर्व सत्त्व का विरोध और कार्यकाल में असत्त्व का अयोग है, तथा सत्त्व और असत्त्व विशेषण भाव (अस्तिरूप पदार्थ) के आश्रयत्व देखा जाता है। अतः, द्रव्यादि के समान सत्त्व और असत्त्व विशेषण के आश्रय युक्त होने से प्रागभाव भी तुच्छ (निरुपाख्य) नहीं है। प्रागभाव को तुच्छ मानने पर विशेष का अभाव होने से विपरीतता का प्रसंग आता है। अर्थात्-जैसे असत्ता-सत्ता का विशेषण होने से प्रागभाव तुच्छ है उसी प्रकार वैशेषिकों द्वारा माने गए गुण, कर्म सामान्य आदि सत्ता-सत्ता विशेषणयुक्त होने से तुच्छ होंगे-यह आपको इष्ट नहीं है ? अत: विपरीतता आएगी।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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