________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 339 न पुनर्नानाद्रव्याणां समानहेतुकत्वादिति वार्तामात्रं, विसदृशहेतूनामपि बहुलं साधर्म्यदर्शनात् / रजतशुक्तिकादिवत् समानपरिणामसत्त्वात् साधर्म्य भावप्रत्यासत्तिविशेषादेव साधर्म्य / न च समानपरिणामो नाना परिणामिद्रव्याभावे संभवतीति न तद्वादिनामेकद्रव्यापहवः श्रेयान् / प्रेत्यभावः कथमेकत्वाभावे न स्यादितिचेत् तस्य मृत्वा पुनर्भवनलक्षणत्वात्। सन्तानस्यैव मृत्वा पुनर्भवनं न पुनर्द्रव्यस्येति चेन्न, संतानस्यैकद्रव्याभावे नियमायोगस्य प्रतिपादनात्। कथंचिदेक द्रव्यात्मनो जीवस्य प्रेत्यभावसिद्धः / पुण्यपापाद्यनुष्ठानं पुनरपि संवाहकर्तृक्रियाफलानुभवितृनानात्वे कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसक्तेर्दूरोत्सारितमेव / तत्संतानैक्ये चैकद्रव्यत्वस्य द्रव्यों के मानने पर नहीं होता, अपितु अन्वय रूप एक क्षेत्र के मानने पर ही हो सकता है। समान हेतु वाले पदार्थों का साधर्म्य कहना केवल प्रलाप मात्र है, क्योंकि विसदृश कारणों से उत्पन्न हुए पदार्थों में भी प्रायः करके साधर्म्य देखा जाता है। जैसे खान से उत्पन्न चांदी और जल से उत्पन्न सीप में कथञ्चित् श्वेतवर्ण की अपेक्षा साधर्म्य देखा जाता है। यदि समान परिणति के विद्यमान होने से पदार्थों का साधर्म्य माना जाता है तब तो एक विशेष भाव प्रत्यासत्ति से ही साधर्म्य होना इष्ट किया गया है, परन्तु वह समान जाति वाला परिणाम तो नाना परिणामी द्रव्यों के अभाव में संभव नहीं है अर्थात् सदृश परिणाम भी परिणामी ध्रुव रहने वाले अनेक द्रव्यों के मानने पर ही सिद्ध हो सकता है अतः सन्तान, समुदाय और साधर्म्य को कहने वाले बौद्धों को एक अन्वित द्रव्य का लोप करना श्रेयस्कर नहीं है। प्रश्न : एक अन्वित आत्म द्रव्य के नहीं मानने पर प्रेत्य भाव (मरकर पुन: जन्म लेना) सिद्ध क्यों नहीं होता है? उत्तर : मरकर पुनः जन्म लेना रूप प्रेत्यभाव मरने और जन्म लेने वाले एक जीव को माने बिना सिद्ध नहीं हो सकता। अर्थात् मरकर पुन: जन्म लेने वाली एक आत्मा के होने पर ही प्रेत्य भाव सिद्ध हो सकता है। ___ “सन्तान मर कर पुनः जन्म लेती है, संतान की परम्परा चलती है, द्रव्य ध्रुव नहीं है" ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि एक द्रव्य के अभाव में संतान के नियम के अयोग का प्रतिपादन किया गया है अर्थात् सन्तानी के बिना संतान की परम्परा कैसे रह सकती है ? अतः कथञ्चित् एक द्रव्यात्मक जीव के मानने पर ही प्रेत्यभाव की सिद्धि हो सकती है अर्थात् एक जीव के नष्ट हो जाने पर मरकर जन्म उसी का हो सकता है। पुनः क्षणिकवाद में पुण्य, पापादि का अनुष्ठान, लेन-देन आदि क्रियाओं का कर्ता, उनके फलों का अनुभोक्ता, कार्य का करना, उसके फलका भोगना आदि सर्व क्रियाओं को दूर से फेंक दिया गया है अर्थात् क्षणिक एकान्त में पुण्य-पाप आदि का अनुष्ठान, फल भोगना आदि कुछ भी नहीं बन सकता।