________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 322 // " “यद्येकार्थाभिसंबंधात्कार्यकारणता तयोः / प्राप्ता द्वित्वादिसंबंधात् सव्येतरविषाणयोः // " “द्विष्ठो हि कश्चित्संबंधो नातोन्यत्तस्य लक्षणं / भावाभावोपधिर्योग: कार्यकारणता यदि // " योगोपाधी न तावेव कार्यकारणतात्र किं। भेदाच्चेन्न त्वयं शब्दो नियोक्तारं समाश्रितः॥” “पश्यन्नेकमदृष्टस्य दर्शने तददर्शने / अपश्यत्कार्यमन्वेति विनाप्याख्यातृभिर्जनः // " दर्शनादर्शने मुक्त्वा कार्यबुद्धरसंभवात् / कार्यादिश्रुतिरप्यत्र लाघवार्थं निवेशिता // " “तद्भावभावात्तत्कार्यगतिर्यस्य तु वर्तते / संकेतविषयाख्या सा सास्नादेोगतिर्यथा॥" (3) यदि एक सम्बन्ध रूप अर्थ से बँध जाने के कारण कार्यत्व और कारणत्व रूप से स्वीकृत क्रमवर्ती पदार्थों में कार्य-कारण भाव माना जाता है तब तो बैल के दायें, बायें सींग में द्वित्व संख्या आदि शब्द के दूरवर्ती निकटवर्ती पदार्थों में होने वाले काल, देश सम्बन्धी परत्व, अपरत्व विभाग, आदि के सम्बन्ध से कार्य-कारण भाव प्राप्त हो जाएगा क्योंकि, दोनों सींग में द्वित्व विभाग आदि विद्यमान हैं। . (4) कोई सम्बन्धवादी कहते हैं कि सम्बन्ध द्विष्ठ है। इससे अन्य द्विष्ठ का लक्षण नहीं है, क्योंकि भावाभावोपधि (जिसके होने पर होना और नहीं होने पर नहीं होना रूप उपाधि) योग-कार्य कारणता है तब तो सभी सम्बन्ध सिद्ध नहीं होते हैं। ऐसा होने पर उस भाव-अभाव रूप विशेषण को ही कार्य कारण भाव क्यों नहीं मान लिया जाता है। असत् सम्बन्ध की कल्पना करने से क्या लाभ है? योगोपाधी (जिसके होने पर होना और जिसके नहीं होने पर नहीं होना) वे दोनों अन्वय व्यतिरेक भी कार्य कारणता नहीं है क्योंकि इसमें भेद से एक कार्य-कारण भाव शब्द के द्वारा अन्वय व्यतिरेक रूप प्रमेय नहीं कहा जा सकता क्योंकि, शब्द तो प्रयोग करने वाले के आधीन है अर्थात् नियोग करने वाला शब्द का जिस प्रकार प्रयोग करता है शब्द उसी प्रकार के अर्थ को कह देता है। ____ जिस कारण से जानने योग्य परन्तु कारण के पूर्व दृष्टिगोचर नहीं होने पर भी वर्तमान मे स्थित कार्य को देखकर “वह इससे उत्पन्न हुआ" इस बात के उपदेशक पुरुष के बिना भी मुनष्य जान लेते हैं और कार्य का ज्ञान कर लेते हैं। दर्शन, अदर्शन (विषयरूप भाव और अभाव) को छोड़कर कार्य बुद्धि की असंभवता है। अर्थात् विषय स्वरूप भाव और अभाव के सिवाय कार्य बुद्धि कुछ जानती ही नहीं है। यह इसका कार्य है, इत्यादि कार्यादि श्रुति (शब्द व्यवहार) को भी लाघव के लिए निविष्ट किया गया है। अर्थात् जिसके होने पर होता है जिसके नहीं होने पर नहीं होता है इतना विस्तारपूर्वक न कह कर “यह इसका कार्य है" "यह इसका कारण है" ऐसा शब्द बोल दिया जाता है। भाव और अभाव रूप हेतु के द्वारा जो कार्य ज्ञान होने का वर्णन किया जाता है, व जिस कार्य का कथन किया है वह भी इस कारण का यह कार्य है, और इस कार्य का यह कारण है, इस संकेत के विषय को ही करता है। (वस्तुभूत कार्य-कारण भाव को नहीं बताता)। जैसे सास्ना (गले में लटकता हुआ चर्म) आदि शब्द से सींग पूंछ के द्वारा गौ (गाय) का ज्ञान कर लिया जाता है अर्थात् गौ और सास्ना आदि का कार्य-कारण भाव नहीं है ज्ञाप्य-ज्ञापक भाव हो सकता 1. भेदाच्चेन्नन्वयं यह पाठ मा०प्र०।