SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 321 व्यवतिष्ठते, येन रूपेण सत्तेन करणायोगादन्यथा स्वात्मनोपि करणप्रसंगात् / येन चात्मना तदसत्तेनापि न कार्यतामियर्ति शशविषाणवदित्युभयदोषावकाशात् / सदसद्रूपं कार्यं नाऽनाकुलं, न च कथंचिदपि कार्यमसाधयत् किंचित्साधनं नाम कार्यकरणभावस्य तत्त्वतोसंभवाच्च। तदुक्तं / “कार्यकारणभावोपि तयोरसहभावतः / प्रसिद्ध्यति कथं द्विष्ठोऽद्विष्ठे संबंधता कथं // " "क्रमेण भाव एकत्र वर्तमानोन्यनिस्पृहः / तदभावेपि भावाच्च संबंधो नैकवृत्तिमान् / / " "यद्यपेक्ष्य तयोरेकमन्यत्रासौ प्रवर्तते। उपकारी ह्यपेक्ष: स्यात् कथं चोपकरोत्यसत् पर तो सत्पक्ष क्यों नहीं आयेगा ? अर्थात् सत् और असत् दोनों पक्षों में भी कार्य कारण भाव सिद्ध नहीं होता है। ____ किसी द्रव्य की अपेक्षा सत् और कथञ्चित् पर्याय की अपेक्षा असत् कार्य को कारण उत्पन्न करता है, यह स्याद्वाद पक्ष भी व्यवस्थित नहीं होता है। क्योंकि जिस स्वरूप से कार्य सत् है उस स्वरूप से उसका करना नहीं हो सकता है। अन्यथा (यदि सत्स्वरूप का भी पुनः उत्पादन किया जाता है तब तो) कारणों के अपनी आत्मा के भी पुनः निष्पादन करने का प्रसंग आता है। जिस स्वरूप से वह कार्य असत् है उसी स्वरूप से कार्य को प्राप्त करता है-ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि शश के सींग के समान असत् के उत्पाद का प्रसंग आता है अत: उभय (दोनों) दोषों का अवकाश (स्थान) होने से स्याद्वादियों का सत्-असत् रूप कार्य का पक्ष लेना भी अनाकुल नहीं है अर्थात् आकुलता उत्पादक होने से सदोष है अत: किसी भी प्रकार से कार्य को नहीं बनाता हुआ तो कोई साधन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए परमार्थ से कार्य कारण भाव की असंभवता है। सोही बौद्ध ग्रन्थों में कहा है "कार्य-कारण भाव भी एक काल में दोनों एक साथ न रहने से अद्विष्ठ में द्विष्ठ सम्बन्धता कैसे सिद्ध हो सकती है अर्थात् कार्य-कारण भाव दो पदार्थों में रहता है वह एक साथ एक काल में रहता नहीं है, कारण के समय कार्य नहीं है और कार्यकाल में कारण नहीं है अतः द्विष्ठ सम्बन्ध की असंभवता है अत: दो पदार्थों में रहने वाले कार्य-कारण में सम्बन्ध कैसे घटित हो सकता है ? (1) सम्बन्ध नाम का पदार्थ एक कारण या कार्य में रहता हुआ तथा कार्य और कारणों में से एक की भी अपेक्षा न करता हुआ एक में ही स्थित रहने वाला वृत्तिमान (सम्बन्ध) नहीं बन सकता क्योंकि कार्य और कारण में से एक के न होते हुए भी सम्बन्ध रह जाता है, ऐसा माना गया है। परन्तु केवल एक में रहने वाला सम्बन्ध नहीं होता है। (2) यदि कार्य-कारणभाव वादी कहे कि कार्य और कारण में से एक कार्य अथवा कारण की अपेक्षा करके शेष बचे अन्य कार्य और कारण में वह सम्बन्ध क्रम से प्रवृत्ति करता है अतः अपेक्षा सहित होने से दो में रहने वाला ही माना जाता है तो जो अपेक्ष्य है (जिसकी अपेक्षा की जाती है, वह उपकारी होना चाहिए) अर्थात् उपकारी की ही अपेक्षा होती है, अन्य (अनुपकारी) कार्य कारणों की अपेक्षा नहीं होती है। परन्तु जब कार्यकाल में कारण और कारण काल में कार्य भाव अविद्यमान है तो वह उपकार कैसे कर सकता है ?
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy