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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 309 . सहात्मन्येकत्र समवायस्तमंतरेण तत्रैव यथानुभवस्मरणानुपपत्तेः सोममित्रानुभवाद्विष्णुमित्रस्मरणानुपपत्तिवत् / संतानैकत्वादुपपत्तिरिति चेन्न, संतानस्यावस्तुत्वेन तन्नियमहेतुत्वाघटनात् / वस्तुत्वे वा नाममात्रं भिद्येत सतां नो द्रव्यमिति / तथैकसंतानाश्रयत्वमेव द्रव्याद्रव्याश्रयत्वं चेति न कश्चिद्विशेषः यत्संतानो वासनाप्रबोधस्तत्संतानं स्मरणमिति नियमोपगमोपि न श्रेयान्, प्रोक्तदोषानतिक्रमात् / संतानस्यात्मद्रव्यत्वोपपत्तौ यदात्मद्रव्यपरिणामो वासनाप्रबोधस्तदात्मद्रव्यविवर्तः स्मरणमिति परमतसिद्धेः / कथं परस्परभिन्नस्वभावकालयोरेकमात्मद्रव्यं व्यापकमिति च न चोद्यं, सकृत्रानाकारव्यापिना ज्ञानेनैकेन प्रतिविहितत्वात् / समसमयवर्तिनो है क्योंकि उस द्रव्य प्रत्यासत्ति रूप समवाय (तादात्म्य) सम्बन्ध के बिना उसी आत्मा में अनुभव के अनुसार स्मरण की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अर्थात् जिसने अनुभव किया है वही स्मरण करता है, जिसने अनुभव नहीं किया है वह स्मरण नहीं कर सकता। जैसे सोममित्र के अनुभव से विष्णुमित्र को स्मरण नहीं हो सकता अत: द्रव्य प्रत्यासत्ति के कारण जन्म जन्मान्तर में भी आत्मा को पूर्व अनुभव का स्मरण हो सकता है। इससे आत्मा के नित्यता की सिद्धि होती है। “संतान के एकत्व से अनुभव के अनुसार स्मरण हो जाता है" बौद्धों का ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि संतान अवस्तु है, कल्पित है अतः वह अवस्तुभूत संतान अनुभव के अनुसार नियत व्यक्ति में ही स्मरण होने का कारण घटित नहीं हो सकती। यदि संतान वास्तविक है तब तो संतान और द्रव्य में नाम मात्र का अन्तर है अर्थात् द्रव्य कहो या संतान, एक ही अर्थ है। इनमें शब्द भेद है, अर्थ भेद नहीं है तथा एक सन्तान के आश्रय रहने वाला आश्रयी कहो या एक द्रव्य का आश्रयी कहो, एक ही अर्थ है, दोनों में कोई विशेषता नहीं है। जिस संतान में स्मरण कराने वाली वासनाएँ जागृत होती हैं उसी संतान में स्मरण उत्पन्न होता है। इस प्रकार का नियम स्वीकार करना श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि इस नियम से भी दोषों का उल्लंघन नहीं होता है। सन्तान को आत्मद्रव्यत्व हो जाने पर जिस आत्मद्रव्य का परिणमन होकर अनुभव के पश्चात् वासना जागृत हुई है उसी आत्मद्रव्य का परिणाम होकर स्मरण उत्पन्न होता है। इससे तो जैन सिद्धान्त की ही सिद्धि होती है। "परस्पर भिन्न स्वभाव वाले और भिन्न काल में होने वाले अनुभव और स्मरण में व्यापक होकर रहने वाला एक आत्मद्रव्य कैसे माना जा सकता है ?" बौद्ध कहते हैं। ऐसी शंका नहीं करना चाहिए क्योंकि एक ही समय में अनेक नील, पीत आदि नाना आकारों में व्यापने वाले एक चित्रज्ञान के द्वारा खण्डन हो जाता है अर्थात् जैसे एक ज्ञान चित्र पदार्थों को एक साथ जानता है उसी प्रकार एक आत्मा परस्पर भिन्न काल स्वभाव वाले पदार्थों को एक साथ जान लेता है। समान
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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