________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 14 ततो न कर्मरूपं सम्यग्दर्शनं नि:श्रयसप्रधानकारणत्वादहेयत्वात्सम्यग्ज्ञानवत्। निःश्रेयसस्य प्रधानं कारणं सम्यग्दर्शनमसाधारणस्वधर्मत्वात्तद्वत्। असाधारणः स्वधर्मः सद्दर्शनं मुक्तियोग्यस्य ततोन्यस्यासंभवात्तद्वत्। इति जीवरूपे श्रद्धाने सद्दर्शनस्य लक्षणे न कश्चिद्दोषोसंभवोतिव्याप्तिरव्याप्तिर्वा समीक्ष्यते // सरागे वीतरागे च तस्य संभवतोंजसा। प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्राच्च चेतसः // 12 // यथैव हि विशिष्टात्मस्वरूपं श्रद्धानं सरागेषु संभवति तथा वीतरागेष्वपीति तस्याव्याप्तिरपि दोषो न शंकनीयः। कुतस्तत्र तस्याभिव्यक्तिरिति चेत्, प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्येभ्यः सरागेषु सद्दर्शनस्य वीतरागेष्वात्मविशुद्धिमात्रादित्याचक्षते / तत्रांनतानुबंधिनां रागादीनां मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोश्चानुद्रेकः प्रशमः। है। सम्यग्ज्ञान के समान असाधारण आत्मीय धर्म होने से सम्यग्दर्शन मोक्ष का प्रधान कारण है। सम्यग्ज्ञान के समान सम्यग्दर्शन भी मुक्ति योग्य भव्य का असाधारण स्व धर्म है। मुक्तियोग्य भव्य को छोड़कर अन्य मिथ्यादृष्टि के उसकी असंभवता है। इस प्रकार जीवरूप सम्यग्दर्शन के श्रद्धानरूप लक्षण में अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव रूप कोई भी दोष दृष्टिगोचर नहीं होता। __सम्यग्दर्शन के इस लक्षण की सराग और वीतराग दोनों सम्यग्दर्शनों में संभवता है। अत: यह लक्षण निर्दोष है। सराग और वीतराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव से अभिव्यक्ति (प्रगटता) लक्षण वाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्मा की विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है // 12 // __जैसे विशिष्ट आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप श्रद्धान सराग सम्यग्दर्शन में संभव है (पाया जाता है) उसी प्रकार वीतराग सम्यग्दर्शन में भी सम्यग्दर्शन का यह लक्षण पाया जाता है। इसलिए, सम्यग्दर्शन के इस लक्षण में अव्याप्ति दोष की शंका नहीं करनी चाहिए। प्रश्न : सम्यग्दृष्टि जीवों में सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति (प्रगटता) किससे जानी जाती है ? उत्तर : प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य- इन चारों स्वभावों से सरागी जीवों में सम्यग्दर्शन जाना जाता है और वीतरागियों में आत्मविशुद्धि मात्र से सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहा जाता है। उनमें अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप रागादिक की तथा मिथ्यात्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व की उदय-उदीरणा नहीं होना (अनुद्रेक होना) प्रशम भाव है। विशेषार्थ : तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य नोकर्म पुद्गल वर्गणाओं को तथा ज्ञानावरणादि आठ कर्म योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण कर छोड़ दिया, पुनः अनन्तबार गृहीत, अगृहीत एवं मिश्र वर्गणाओं को ग्रहणकर तत्पश्चात् उन्हीं तीव्र मन्द भावों से पूर्व गृहीत वर्गणाओं का ग्रहण करना द्रव्य परिवर्तन है। तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण सारे क्षेत्र का जन्मस्थान बनना क्षेत्र परिवर्तन है-अर्थात् कोई जीव घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर को धारण कर मरा, तत्पश्चात् घनांगुल के जितने असंख्यात भाग प्रमाण प्रदेश हैं उतने ही शरीर धारण कर मरता है, जन्मता है, पुनःसारे क्षेत्र को जन्म स्थान बनाना क्षेत्र परिवर्तन ह।