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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 191 सिद्धा शश्वदविच्छिन्नात्मन्येवानुभवेऽनेककालवर्तित्वलक्षणस्य क्र मस्योपपत्तेर्योगपद्यस्य वाविच्छिन्नानेकप्रतिभासलक्षणस्य तत्रैव भावात् सुखसंवेदने प्राच्यदुःखसंवेदनाभावान्नाविच्छिन्नमेकं संवेदनं यदनाद्यनंतकालवर्तितया क्रमवत् स्यादितिचेन्न, सुखदुःखाद्याकाराणामनाद्यविद्योपदर्शितानामेव विच्छेदात् / एतेन नानानीलपीतादिप्रतिभासानां देशविच्छेदाधुगपत्सकलव्यापिनोनुभवस्याविच्छेदाभावः प्रत्युक्तः, तत्त्वतस्तद्वद्विच्छेदाभावात् / ततो न क्षणिकमद्वयं संवेदनं नाम तस्य व्यापि नित्यस्यैव प्रतीतिसिद्धत्वात् / के बिना नहीं होती है और व्याप्य, व्यापक भाव को सिद्ध करने के लिए पुनः दूसरे अनुमान की आकांक्षा होने पर अनवस्था दोष होगा ही। तथा व्याप्य-व्यापक भाव के सिद्ध हो जाने पर भी अनेक क्षणों तक रहने वाले अक्षणिक में क्रम और युगपत् होने वाली अर्थक्रिया की निवृत्ति (अभाव) सिद्ध नहीं है, क्योंकि शाश्वत (निरंतर) अविच्छिन्न रूप वस्तु में अनुभव ज्ञान के द्वारा अनेक कालों में रहने वाले क्रम का और अविच्छिन्न स्वरूप अनेक प्रतिभास कराने रूप युगपत् का भी अस्तित्व पाया जाता है। . भावार्थ : मनुष्य पर्याय रूप आत्म द्रव्य के अनेक काल तक रहने पर बालक, युवा, वृद्धावस्था का क्रम घटित हो सकता है और आत्मा के स्थिर रहने पर ही क्रोध, मान, माया, लोभ, इच्छा, ज्ञान आदि परिणामों का युगपत् होना सिद्ध हो सकता है। निरन्वय नाश होने वाले द्रव्य में क्रमिक और योगपद्य क्रिया नहीं हो सकती। सुख का वेदन करते समय पूर्वकालीन दुःख के वेदन का अभाव है अर्थात् सुख के अनुभव में दुःख का अनुभव नहीं होता है। इसलिए अविच्छिन्न रूप से एक संवेदन नहीं होता है, जो अनादि अनन्त काल वर्ती होकर क्रम सहित हो सकता हो ? ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि अनादि कालीन अविद्या के द्वारा उपदर्शित (दृष्टिगोचर होने वाले) सुख, दुःख आदि आकारों का (विकल्पों का) उच्छेद हो जाता है अर्थात् सुख में दुःख का तथा तीव्र कषाय में मन्द कषाय का अनुभव नहीं होता है तथापि प्रतिभास रूप सन्तति का अभाव नहीं होता है। अविच्छिन्न रूप से संतति चलती रहती है। द्रव्य का उच्छेद नहीं होता है। इस कथन से “अनेक नील पीतादि प्रतिभासों का देश से व्यवधान होने के कारण एक समय में ही सम्पूर्ण संवेदनों में व्यापक रहने वाले अनुभव का अविच्छिन्नपना नहीं है" इसका भी खण्डन कर दिया है क्योंकि परमार्थ रूप से उस प्रकाशरूप संवित्ति का विच्छेद नहीं होता है। उसके विच्छेद का अभाव है अर्थात् एक द्रव्य के क्रम से होने वाले परिणामों में और एक साथ होने वाले परिणामों में ध्रौव्य रूप अन्वय बने रहने के कारण कालान्तर स्थायी पदार्थों में ही क्रम और यौगपद्य अर्थक्रिया घटित हो सकती है। कूटस्थ नित्य और क्षणिक पदार्थों में अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। इसलिए एक क्षण में ही नष्ट हो जाने वाली शुद्ध अद्वैत संवेदन वस्तु नहीं है किन्तु अनेक आकारों में व्यापने वाले तथा अनेक समय तक रहने वाले नित्य पदार्थ के संवेदन की प्रतीति होती है, अर्थात् नित्य ही प्रतीति प्रसिद्ध है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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