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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 161 समवायादेरपि क्व विशेषणत्वं, तदभावेपि किं न स्यात् ? इति न विशेषणविशेष्यभावसिद्धिः / तदसिद्धौ च न किंचित्कस्यचिद्विशेषणमिति न विरोधो विरोधिविशेषणत्वेन सिद्ध्यति। विरोधप्रत्ययविशेषत्वं तु केवलं विरोधमात्रं साधयेन्न पुनरनयोर्विरोध इति तत्प्रतिनियम, ततो न विरोधिभ्योत्यंतभिन्नो विरोधोभ्युपगंतव्यः / कथंचिद्विरोध्यात्मकत्वे तु विरोधस्य प्रतिनियमसिद्धिर्न कश्चिदुपालंभ इति सूक्तं विरोधवत्स्वाश्रयानामादीनां भिन्नाभिन्नत्वसाधनं / नामादिभिया॑सोऽर्थानामनर्थक इति चेन्न, तस्य प्रकृतव्याकरणार्थत्वादप्रकृताव्याकरणार्थत्वाच्च / भावस्तम्भप्रकरणे हि तस्यैव व्याकरणं नामस्तंभादीनामव्याकरणं च अप्रकृतानां न भाव संबंध के बिना क्यों नहीं स्वीकार कर लिया जाता है। अर्थात् समवाय वा अभाव अपने आप संबंध को प्राप्त क्यों नहीं हो जाते हैं अतः विशेषण विशेष्य भाव की सिद्धि नहीं हो सकती तथा विशेषण विशेष्य भाव की असिद्धि हो जाने पर कोई पदार्थ किसी का विशेषण नहीं बन सकता। इसलिए विरोध, विरोधी का विशेषण सिद्ध नहीं हो सकता अर्थात् विरोधी पदार्थों का विरोध रूप पदार्थ विशेषण सिद्ध नहीं हो सकता ... विरोध ज्ञान का विषयत्व तो केवल विरोध मात्र को सिद्ध करता है किन्तु उन नियमित शीत, उष्ण, प्रकाश, अन्धकार आदि दो पदार्थों में होने वाले विरोध के नियम का कथन नहीं कर सकता इसलिए विरोधियों से अत्यन्त भिन्न विरोध स्वीकार नहीं करना चाहिए। स्याद्वाद मतानुसार विरोध को विरोधियों के साथ कथंचित् तदात्मक स्वीकार कर लिया जाये तो विरोध का स्वकीय विरोधियों के साथ प्रतिनियम बन जाना सिद्ध हो जाता है इसमें कोई उलाहना नहीं है अर्थात् विरोध कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है अपितु पदार्थ का स्वभाव ही है अत: विरोध के समान नाम स्थापना आदिक निक्षेप भी अपने-अपने आश्रित द्रव्य से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं यह कथनयुक्ति संगत है। नाम स्थापना द्रव्य और भाव रूप निक्षेपों के द्वारा पदार्थों का न्यास करना निष्प्रयोजन है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि प्रकरणगत पदार्थ के व्युत्पादन करने के लिए और अप्रकरणगत पदार्थ का निवारण करने के लिए न्यास (निक्षेप) की आवश्यकता है क्योंकि भाव स्तंभ के प्रकरण में उस पाषाण या काष्ठ के स्तंभ की ही नियम से व्युत्पत्ति (ज्ञान) कराना है और प्रकरण प्राप्त कार्य में अनुपयोगी नामस्तंभ, चित्रित किये स्थापना स्तंभ, भविष्य में होने वाले वृक्ष या शिला रूप द्रव्य स्तंभ रूप अप्रकृतों का बोध नहीं कराना है इसमें प्रकृत का (प्रकरण द्रव्य का) ज्ञान और अप्रकरण का निवारण नामादि निक्षेप के बिना घटित नहीं हो सकता है क्योंकि नामादि निक्षेप के बिना प्रकरण प्राप्त विषय में और अप्रकरण प्राप्त पदार्थों में संकर-व्यतिकर व्यवहार का प्रसंग आयेगा अर्थात् महावीर ऐसा कहने पर प्रकरण में नाम महावीर से प्रयोजन है कि स्थापना महावीर से या द्रव्य तथा भाव रूप महावीर से प्रयोजन है उसका ज्ञान निक्षेपों के द्वारा ही होता है अन्यथा महावीर इस शब्द को सुनकर यद्वा तद्वा प्रवृत्ति भी हो सकती है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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