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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 157 / एतेनोष्णद्रव्यस्यैव विरोधो विशेषणं इत्यपि निरस्तं / यदि पुनः कर्मस्थक्रियापेक्षया विरुद्धमानत्वं विरोधः स शीतद्रव्यस्य विशेषणं, कर्तृस्थक्रियापेक्षया विरोधः स उष्णद्रव्यस्य / विरोधसामान्यापेक्षया विरोधस्योभयविशेषणत्वोपपत्तेर्द्विष्ठत्वं तदा रूपादेरपि द्विष्ठत्वनियमापत्तिस्तत्सामान्यस्य द्विष्ठत्वात् , रूपादेर्गुणविशेषणात् तत्सामान्यस्य पदार्थांतरत्वात न तदनेकस्थत्वे तस्यानेकस्थत्वमिति चेत् तर्हि कर्मकर्तृस्थाद्विरोधविशेषात् पदार्थांतरस्य / विरोधसामान्यस्य द्विष्ठत्वे कुतस्तद्विष्ठत्वं येन द्वयोर्विशेषणं विरोधः / एतेन गुणयोः कर्मणोर्द्रव्यगुणयोः गुणकर्मणोः द्रव्यकर्मणोर्वा विरोधो विशेषणं इत्यपास्तं, विरोधस्य सब का सर्वकाल विरोध होते रहने का प्रसंग आयेगा। (वस्तुतः पृथक्त्व, विरोध, विभाग, द्वित्व, संयोग आदिक भाव दो आदि पदार्थों में रहते हुए माने गये हैं, अकेले में नहीं।) इस कथन से वह विरोध उष्ण द्रव्य का ही विशेषण है इसका भी खण्डन कर दिया है ऐसा समझना चाहिए। वैशेषिक कहता है- . यदि पुनः कर्मस्थ क्रिया की अपेक्षा (सकर्मक धातु की अपेक्षा) विरोध दो में रहता है अर्थात् सकर्मक धातु की क्रिया कर्ता और कर्म दोनों में रहती है; जैसे माता दाल पकाती है यहाँ पच् धातु का वाच्यार्थ पचन क्रिया माता में भी रहती है और दाल में भी रहती है। माता में कर्ता की अपेक्षा से है और दाल में कर्म की अपेक्षा से पर्चन क्रिया रहती है। उसी प्रकार शीत द्रव्य का उष्ण द्रव्य विरोध करता है यह कर्म में स्थित क्रिया की अपेक्षा विरोध है और शीत द्रव्य का विरुद्ध्यमानत्व विरोध है, वह शीत द्रव्य रूप कर्म का विशेषण है और कर्ता में स्थित क्रिया की अपेक्षा से विरोध करने वाले उष्ण द्रव्य का विरोधकत्व रूप विरोध है वह उष्ण द्रव्य का विशेषण है तथा विरोध सामान्य की अपेक्षा वह विरोध शीत द्रव्य और उष्णद्रव्य इन दोनों का विशेषण है अत: विरोध द्विष्ठत्व है अर्थात् विरोध दोनों में रहता है, यह सिद्ध है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं यदि इस प्रकार विरोध दोनों में रहता है तब तो रूप रस आदि के भी दो में रहने के नियम का प्रसंग आयेगा क्योंकि रूप आदिक में भी सामान्य की अपेक्षा द्विष्ठत्व (दो में रहना) सिद्ध है अर्थात् व्यक्ति रूप गुण की अपेक्षा रूपादि एक में रहते हैं और रूप सामान्य की अपेक्षा अनेक में रहते हैं अत: रूपादि एक और अनेक का विशेषण हो जाते हैं क्योंकि रूपादि से रूपादि सामान्य पृथक् नहीं है। वैशेषिक कहता है- रूप, रसादि गुण विशेष हैं और उनमें रहने वाला रूपत्व, रसत्व, सामान्य रूप जाति गुण पदार्थ से भिन्न सामान्य पदार्थ है इसलिए गुण विशेष से भिन्न सामान्य पदार्थ के अनेक में स्थित होने पर भी विशेष रूपादि गुणों के अनेक में रहने का प्रसंग नहीं आता है। वैशेषिक के इस कथन के प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो विरोध भी दो में रहने वाला नहीं हो सकता है। कर्म में और कर्ता में स्थित व्यक्ति स्वरूप विरोध विशेष से पदार्थान्तर (भिन्न पदार्थ) स्वरूप विरोध सामान्य के द्विष्ठ (दो में) रहना कैसे सिद्ध हो सकता है, जिससे विरोध भाव दो का विशेषण हो सके अर्थात् विरोधत्व दो में रह सकता है परन्तु रूप रस आदि के समान विरोध दो का विशेषण नहीं हो सकता।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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