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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-६६ न स्यात् / लोकगर्हितत्वमुभयत्र समानम् / केषांचिदगर्हितत्वं चेति। ततो न सधनवधाग्निहोत्रयोः प्रत्यवायेतरसाधनत्वव्यवस्था। प्रत्यक्षादिप्रमाणबलात्तु नाग्निहोत्रस्य श्रेयस्करत्वसिद्धिरिति नास्यैव विहितानुष्ठानत्वं, यतो हिंसाहेतुत्वाभावादसिद्धो हेतु: स्यात् / तन्न प्रकृतचोदनायां बाधकभावनिश्चयादर्थतस्तथाभावे संशयानुदयः पुरुषवचनविशेषवदिति न तदुपदेशपूर्वक एव सर्वदा धर्माधुपदेशो येनास्य परोपदेशानपेक्षत्वविशेषणमसिद्धं नाम / न च परोपदेशलिंगाक्षानपेक्षा वितथत्वेऽपि तत्साक्षात्कर्तृपूर्वकत्वं सूक्ष्माद्यर्थोपदेशस्य प्रसिद्धस्यनोपपद्यते तथाविनाभावं संदेहायोगादित्यनवद्यं सर्वविदो ज्ञापकम् तत्। का वध श्रेयस्कारी क्यों नहीं होगा? जिससे धनिकों का वध कल्याणकारी नहीं होता और यज्ञ में जीवों का वध कल्याणकारी हो ऐसा कथन युक्तियुक्त कैसे हो सकता है, क्योंकि लोकनिन्दा दोनों में समान है। जैसे लोक में धनिकों का घात करना निन्दनीय है, वैसे अग्निहोत्र आदि यज्ञ में जीवों का वध करना भी निन्दनीय है। तथा- खारपटिक मत वाले धनवानों के वध की निन्दा नहीं करते हैं, तो वेदमतवाले यज्ञ में पशुवध की निन्दा नहीं करते हैं अत: किन्हीं की प्रशंसा भी दोनों में समान है। इसीलिए धनिकों का . वध करना और यज्ञ में पशुओं का घात करना, दोनों में यज्ञ में पशुवध को धर्म मानना और धनिकों के वध को पाप मानना, यह व्यवस्था नहीं हो सकती। दोनों ही क्रिया हिंसायुक्त होने से पापमय और दुःख देने वाली हैं। अर्थात्-धनिकों का वध यदि सदोष है तो यज्ञ में पशुवध भी सदोष है। प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के बल से भी अग्निहोत्र के श्रेयस्करत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार वेदविहित यज्ञादि अनुष्ठान शास्त्रोक्त नहीं हैं। अतः अग्निहोत्र में हिंसाहेतुत्व का अभाव होने से जैनाचार्य के द्वारा कथित हिंसाहेतुत्व हेतु असिद्ध नहीं है। अर्थात् यज्ञ में पशुवध करने में हिंसा होती ही है। अतः यज्ञ स्वर्ग का साधन नहीं है। अतः प्रकरण में प्राप्त वेद के लिट्, लोट्, तव्य, प्रत्ययान्त प्रेरणा वाक्य में बाधक प्रमाण की सत्ता का निश्चय है। अर्थात् वेदवाक्य का खण्डन करने वाले प्रत्यक्ष आदि प्रमाण स्थित हैं। अत: वेदवाक्य में संशय का अनुदय नहीं है। वेदवाक्य संशय रहित नहीं है। जैसे साधारण पुरुषों के वचन विशेष में संशय होता है, वैसे वेदवाक्य में भी संशय होता है। अतः अपौरुषेय वेदवाक्य के उपदेश पूर्वक ही सदा धर्म आदि का उपदेश होता है, जिससे सर्वज्ञ के परोपदेश अनपेक्षत्व विशेषण असिद्ध हो जाता हो अर्थात् सर्वज्ञ के द्वारा दिये गये सूक्ष्म आदि पदार्थों के उपदेश में छद्मस्थों के उपदेश की अपेक्षा किसी प्रकार भी नहीं है। परोपदेश, लिंग और इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित सत्यार्थ उपदेश में भी प्रसिद्ध सूक्ष्मादि अर्थ - के उपदेश का सर्वज्ञ के साक्षात् करने पूर्वक हेतु का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् सर्वज्ञ भगवान्
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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