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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१३ पुनरस्याभ्यस्तप्रवक्तृगुणान् प्रतिपाद्यान् प्रति स्वत एवाभ्यस्तकारणगुणान् प्रति प्रत्यक्षादिवत् / स्वयमनभ्यस्तवक्तृ गुणांस्तु विनेयान् प्रति सुनिश्चितासंभवदाधकत्वादनुमानात्स्वयं प्रतिपन्नाप्तांतरवचनाद्वा निश्चितप्रामाण्यात् / न चैवमनवस्था परस्पराश्रयदोषो वा। अभ्यस्तविषये प्रमाणस्य स्वतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्थाया निवृत्तेः, पूर्वस्यानभ्यस्तविषयस्य परस्मादभ्यस्तविषयात्प्रमाणत्वप्रतिपत्तेः / तथानुमानमूलमेतद्वाक्यं, स्वयं स्वार्थानुमानेन निश्चितस्यार्थस्य परार्थानुमानरूपेण प्रयुक्तत्वात्। समर्थनापेक्षसाधनत्वान्न प्रयोजनवाक्यं परार्थानुमानरूपमिति चेत्, न, स्वेष्टानुमानेन व्यभिचारात् / न हि तत्समर्थनापेक्षसाधनं न भवति प्रतिवादिविप्रतिपत्तो तद्विनिवृत्तये पुनः इस ग्रन्थ की प्रमाणता सच्चे वक्ता के गुणों को जानने का जिन श्रोताओं को अभ्यास हो चुका है ऐसे श्रोताओं के प्रति तो स्वतः ही है। अर्थात् आप्त के गुणज्ञ शिष्य प्रत्यक्ष में स्वतः ही अर्थात् उन ज्ञान के कारणों से ही प्रामाण्य जान लेते हैं, वा इस आगम में प्रमाणपना अपने आप सिद्ध हो जाता है प्रत्यक्षादि के समान, जैसे प्रत्यक्ष जाने हुए पदार्थों में दूसरे की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं में प्रमाण है। और जिन को वक्ता के गुणों को जानने का स्वयं अभ्यास नहीं है अर्थात् जो सर्वज्ञ के गुणों को नहीं जानते हैं उन शिष्यों के लिए सुनिश्चित असंभव बाधकत्व (यानी स्ववचन, आगम, लोक आदि बाधक प्रमाण के नहीं उत्पन्न होने का सुनिश्चय है) अनुमान से वा स्वयं निश्चित कर लिया है इस आगम के प्रामाण्य को जिन्होंने ऐसे दूसरे आप्तों के वचनों से भी निश्चित प्रामाण्य होने से प्रमाणता आती है अर्थात् अभ्यस्त दशा में स्वतः और अनभ्यस्त दशा में परतः प्रमाणता होती है। इस कथन में अनवस्था और परस्पराश्रय दोष भी नहीं है। क्योंकि अभ्यस्त (परिचित) विषय में स्वतः प्रमाणता स्वीकार करने से अनवस्था दोष की निवृत्ति हो जाती है। तथा पूर्व में अनभ्यस्त (अपरिचित) विषय के प्रमाणत्व की प्रतिपत्ति (प्रमाणता) अभ्यस्त विषय वाले दूसरे से होती है। पूर्व के अनभ्यस्त (अपरिचित) विषय को जानने वाले ज्ञान का अभ्यस्त विषय को जानने वाले ज्ञानान्तर से प्रमाणपना आता है, अतः परस्पराश्रय दोष भी नहीं है। _ यह 'श्रीवर्द्धमानमाध्याय' इत्यादि वाक्य अनुमानमूलक (अनुमान से भी सिद्ध) है। क्योंकि स्वयं व्याप्ति ग्रहण कर किये गये स्वार्थानुमान से निश्चित अर्थ का परार्थ अनुमान रूप से प्रयोग किया जाता है। अर्थात् जो स्वार्थानुमान से सिद्ध होता है, उसी को दूसरों को समझाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इस ग्रन्थ में शिष्यों को समझाया गया है अत: यह अनुमान सिद्ध भी है। (विद्यानन्द स्वामी ने स्वयं व्याप्ति ग्रहण कर किये गये स्वार्थानुमान से निश्चित अर्थ को परार्थानुमानरूप बना कर प्रयोग कर दिया है।) प्रश्न - “विद्यास्पदस्त्व" हेतु अपने समर्थन (दृष्टान्त) की अपेक्षा रखने वाला होने से परार्थानुमान नहीं है? _____ उत्तर - इस प्रकार कहना उचित नहीं है - क्योंकि परार्थानुमान को स्वीकार नहीं करने पर स्व अभिप्रेत अनुमान के द्वारा व्यभिचार आता है। तथा परार्थानुमान को समर्थन की अपेक्षा नहीं होती है, ऐसा नहीं है क्योंकि प्रतिवादी के विप्रतिपत्ति (विवाद) में उस विवाद की निवृत्ति करने के लिए साधन के समर्थन की
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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