________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 12 "वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितं। आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधितं // " (समन्तभद्राचार्य) न चैवं प्रमाणसंप्लववादविरोधः, क्वचिदुभाभ्यामागमानुमानाभ्यां प्रवर्तनस्येष्टत्वात् / प्रवचनस्याहेतुहेतुमदात्मकत्वात् / स्वसमयप्रज्ञापकत्वस्य तत्परिज्ञाननिबंधनत्वादपरिज्ञाताहेतुहेतुवादागमस्य सिद्धांतविरोधकत्वात्। तथा चाभ्यधायि। , "जो हेदुवादपरकम्मि हेदुओ आगमम्मि आगमओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविरोहओ अण्णोत्ति // " 3/45 सन्मतिसूत्रः सिद्धसेन तत्रागममूलमिदमादिवाक्यं परापरगुरुप्रवाहमाध्याय प्रवचनस्य प्रवर्तक 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकं प्रवक्ष्यामीति' वचनस्यागमपूर्वकागमार्थत्वात् / प्रामाण्यं समन्तभद्राचार्य ने देवागमस्तोत्र में कहा भी है - "असर्वज्ञ वक्ता के होने पर उसके वचनों में हेतु से साध्य सिद्ध होने से वह हेतुसाधित (अनुमानसाधित) कहलाता है। और सर्वज्ञ वक्ता के निश्चय होने पर उसके वचनों से जो साध्य जाना जाता है वह आगमसाधित है।" इस प्रकार के कथन में प्रमाण संप्लव (बहुत से प्रमाणों का एक की सिद्धि में प्रवेश) का विरोध भी नहीं है - क्योंकि कहीं-कहीं पर अनुमान और आगम इन दोनों प्रमाणों की प्रवृत्ति भी इष्ट मानी गई है, प्रवचन के अहेतु तथा हेतु दोनों स्वरूप होने से; अर्थात् शास्त्र पढ़ने में दोनों प्रकार से प्रवृत्ति होती है, कोई विषय अनुमान से जाना जाता है और कोई अनुमान का विषय न होने से बिना हेतु ही आगम के बल पर स्वीकार किया जाता है। अतः स्वसमय (इन्द्रियानिन्द्रियग्राह्य विषयों से परिपूर्ण अपने सिद्धान्त) के परिज्ञान का कारण होने से अज्ञात हेतुवाद वाले आगम के सिद्धान्त का विरोधत्व है। अर्थात् हेतुओं के द्वारा अनिर्णीत तत्त्वों का निरूपण करने वाला आगम सिद्धान्त का विरोधी होने से आगम नहीं है। सो ही पूर्वाचार्यों ने कहा है - पक्ष, दृष्टान्त, व्याप्ति और समर्थन ये हेतु के परिवार हैं। इस हेतुवाद से सिद्ध आगम ही सर्व आगमों में श्रेष्ठ आगम है और वही आगम स्व सिद्धान्तों का प्रज्ञापक (कथन करने वाला) है। और जो आगम हेतु से खण्डित है, अपने सिद्धान्त का पोषक नहीं है, वह स्वसिद्धान्त का विरोधी होने से आगम नहीं है। ___ अब आगम और अनुमान प्रमाण की नींव पर 'श्रीवर्द्धमानमाध्याय' इस आदि वाक्य की स्थिति सिद्ध करते हैं। इन दोनों मूल कारणों में प्रथम आगम को आदिवाक्य का मूलकारणपना सिद्ध करते हैं। श्रीवर्द्धमान' इत्यादि वाक्य के मूल कारण पूर्वाचार्यों के आगम ही हैं क्योंकि 'पर-अपर गुरुओं का ध्यान करके श्लोकवार्तिक कहूंगा' ऐसे वचनों का प्रयोग आगमगम्य पदार्थों का आगम प्रमाण से निर्णय करने पर ही किया जाता है।