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________________ परिशिष्ट-३९९ न्यायदर्शन आत्मा को नित्य और अनन्त मानता है। पुनर्जन्म और परलोक व कर्मफल में विश्वास करता है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण स्वीकार करता है। // वैशेषिक दर्शन' इस दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद हैं। खेतों से अन्न के कण बीन कर अपने उदर की पूर्ति करने के कारण इनका यह नाम पड़ा था। वैशेषिक सूत्रों की संख्या 370 है। इस दर्शन का उद्देश्य है- निःश्रेयस अथवा मोक्ष की प्राप्ति। वैशेषिक का अर्थ है विशेष पदार्थमधिकृत्य कृतं शास्त्रं वैशेषिकम् / पृथिव्यादि परम सूक्ष्मभूत तत्त्वों का नाम विशेष है। विशेष नामक पदार्थ को मूल मानकर प्रवृत्त होने से इस शास्त्र का नाम वैशेषिक है। इस दर्शन की मान्यताएँ अधोलिखित हैं 1. पदार्थ छह हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। 2. द्रव्य नौ हैं - पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। 3. गुण चौबीस हैं - स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पार्थक्य, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, स्नेह, गुरुत्व और द्रवत्व। 4. कर्म पाँच प्रकार के हैं - उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन। 5. सामान्य दो प्रकार का है - सत्तासामान्य और द्रव्यत्वादि (विशिष्ट) सामान्य। 6. विशेष - विशेष किसी पदार्थ की उस सत्ता का नाम है, जो उसे अन्य पदार्थों से भिन्न दिखलाता 4. समवाय - दो वस्तुओं के नित्य सम्बन्ध को समवाय कहते हैं, जैसे गुलाब में सुगन्ध, मनुष्य में मनुष्यता। मूल सिद्धान्त :.. 1. परमाणुवाद - जगत् के मूल उपादान कारण परमाणु हैं। इन्हीं परमाणुओं के संयोग से नाना वस्तुएँ बनी हैं। 2. अनेकात्मवाद - आत्माएँ अनेक हैं और कर्मफलभोग के लिए भिन्न-भिन्न शरीर धारण करती tic . . 3. असत्कार्यवाद - कारण से नवीन कार्य उत्पन्न होता है और कार्य अनित्य है। 4. परमाणुनित्यतावाद - परमाणु नित्य हैं, अवयवरहित होने के कारण उनका नाश नहीं होता। 5. सृष्टिवाद - बिना कारण के कार्य नहीं होता। जगत् कार्य है और उसका कर्ता ईश्वर है। 6. मोक्षवाद - आवागमन के चक्र से छूटकर मोक्ष प्राप्त. करना जीव का चरम लक्ष्य है। इस दर्शन के अनुसार आत्मा नित्य है, पुनर्जन्म है, जीव को कर्म फल देते हैं, परलोक है। ईश्वर सर्वज्ञ और त्रिकालज्ञ है। वेद प्रामाणिक हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण हैं।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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