SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट-३९८ परिशिष्ट : 2 अन्य दर्शन परिचय न्याय दर्शन // न्यायदर्शन के आदिप्रवर्तक महर्षि गौतम माने जाते हैं। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है- न्यायसूत्र / इस ग्रन्थ में 5 अध्याय हैं, प्रत्येक में दो-दो आह्निक हैं और 538 सूत्र हैं। प्रथम अध्याय में उद्देश्य तथा लक्षण और अगले अध्यायों में पूर्वकथन की परीक्षा की गई है। 'न्याय' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है परन्तु दार्शनिक साहित्य में 'न्याय' का अर्थ हैनीयते प्राप्यते विवक्षितार्थसिद्धिरनेन इति न्यायः। जिसके द्वारा किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि की जा सके, जिसकी सहायता से किसी निश्चित सिद्धान्त पर पहुंचा जा सके, उसी का नाम न्याय है। न्यायदर्शन को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है१. सामान्य ज्ञान की समस्या को हल करना। 2. जगत् की पहेली को सुलझाना। 3. जीवात्मा तथा मुक्ति। 4. परमात्मा और उसका ज्ञान। उपर्युक्त विषयों की सिद्धि के लिए न्यायदर्शन ने प्रमाण आदि सोलह पदार्थ माने हैं। न्याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय 'प्रमाण' है। प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मुक्ति होती है दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः। . दुःख, जन्म, प्रवृत्ति-पापपुण्य, दोष-रागद्वेष, मोह और मिथ्याज्ञान-इनमें से उत्तर-उत्तर के नाश से उससे अनन्तर (पूर्व) का नाश होने से मोक्ष होता है। शरीर को आत्मा समझना इत्यादि जो मिथ्याज्ञान है, उससे रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। रागद्वेष से पुण्यपाप, पुण्यपाप से जन्म और जन्म से दुःख होता है। यह संसारचक्र है। जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तब उससे मिथ्याज्ञान का नाश होता है। मिथ्याज्ञान के नाश से रागद्वेष आदि का नाश होकर दुःख का नाश होता है। दुःख का अत्यन्त नाश ही मोक्ष है। न्याय आस्तिक दर्शन है। नैयायिक ईश्वर को सर्वज्ञ, त्रिकालज्ञ, जगन्नियन्ता और कर्मफलप्रदाता मानते हैं। ईश्वर की सिद्धि में न्यायदर्शन की युक्तियाँ इस प्रकार हैं 1. जितने पदार्थ हैं, वे सब सावयव हैं, अत: उनका कोई चैतन्य कर्ता होना चाहिए। 2. मनुष्यों को उनके कर्मों की फलप्रदाता कोई चैतन्य सत्ता होनी चाहिए। 3. वेद ज्ञान के भण्डार हैं और अपौरुषेय हैं। ईश्वर ही उनका कर्ता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy