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________________ . तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 394 प्रतीत्याश्रयणे सम्यक्चारित्रं दर्शनविशुद्धिविजूंभितं प्रवृद्धेद्धबोधमधिरूढमनेकाकारं सकलकर्मनिर्दहनसमर्थं यथोदितमोक्षलक्ष्मीसंपादननिमित्तमसाधारणं, साधारणं तु कालादिसंपदिति निर्बाधमनुमन्यध्वं, प्रमाणनयैस्तत्त्वाधिगमसिद्धेः। नाना नानात्मनीनं नयनयनयुतं तन्न दुर्णीतिमानं, तत्त्वश्रद्धानशुद्ध्यध्युषिततनु बृहद्बोधधामादिरूढम् / चंचच्चारित्रचक्रं प्रचुरपरिचरच्चंडकर्मारिसेना, सातुं साक्षात्समर्थं घटयतु सुधियां सिद्धसाम्राज्यलक्ष्मीम् // 1 // इति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे प्रथमाध्यायस्य प्रथममाह्निकम्। . भावार्थ- आचार्य विद्यानन्द के कथनानुसार मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये बन्ध के कारण हैं। इन तीन में ही मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रूप बन्ध के कारणों का अन्तर्भाव . हो जाता है। तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण हैं। सूत्र का शब्दबोधप्रणाली से वाक्यार्थबोध करने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित सम्यक्चारित्र ही मोक्ष का कारण है, यह ध्वनित होता है। अतः मोक्ष के कारणों में चारित्र की पूर्णता ही साक्षात् मुक्ति का कारण है। इसमें कोई संशय नहीं है। प्रमाणसिद्ध प्रतीतियों का आश्रय लेने पर दर्शनविशुद्धि से विजूंभित (वृद्धि को प्राप्त), अनेक आकारों को आरूढ़ (अनन्तानन्त पदार्थों का उल्लेख करने वाला, जानने वाला) प्रवृद्ध (परिपूर्णता को प्राप्त) केवलज्ञान सहित सम्यक्चारित्र ही सकल कर्मों को भस्म करने में समर्थ यथोदित मोक्षलक्ष्मी के सम्पादन करने का निमित्त, असाधारण कारण है। अर्थात् मुक्ति का असाधारण कारण सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित सम्यक्चारित्र ही है। परन्तु काल, वज्रवृषभ संहनन आदि सामग्री रूप सम्पत्ति साधारण कारण हैं। इसको निर्बाध स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समग्रता ही मोक्ष का मार्ग (कारण) है। यह निर्बाध रूप से स्वीकार करना चाहिए। इसी प्रकार प्रमाण और नय के द्वारा तत्त्वों के अधिगम की सिद्धि है। इसलिए तत्त्व के परीक्षकों को प्रमाण, नयविकल्पों से सिद्ध तत्त्वों को स्वीकार करना चाहिए। अब आचार्य प्रथम सूत्र का कथन करके आशीर्वादात्मक श्लोक कहते हैं नाना (अनेक), अनाना (एक) है धर्म जिसमें (अर्थात् व्यवहार नय से चारित्र अनेक प्रकार का है और निश्चय नय से एक प्रकार का है। सर्व सावद्य योग निवृत्ति रूप चारित्र एक ही है), नय रूपी नेत्र से युक्त है वा अनेक भेद वाले नयों की प्राप्ति से युक्त है, दुर्नय और मिथ्याज्ञान से रहित है, अर्थात् कुज्ञान, कुनय की जिसमें संभावना नहीं है, तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन की शुद्धि से आक्रान्त है शरीर जिसका (सम्यग्दर्शन ही जिसका शरीर है), केवलज्ञान रूप तेज से आरूढ़ है, प्रचुर प्रचण्ड कर्म रूपी शत्रु की सेना को साक्षात् (उत्तरकाल में) नाश करने में समर्थ है, ऐसा आत्मीय शक्ति से देदीप्यमान चारित्रगुण रूपी चक्र बुद्धिमान भव्य जीवों को मुक्ति रूपी साम्राज्य लक्ष्मी प्रदान करे॥१॥ इसमें आचार्यदेव ने चारित्र को चक्र की उपमा दी है। जैसे चक्र शत्रुओं की सेना का विध्वंस करके चक्रवर्ती को सम्राट् पद प्रदान करता है उसी प्रकार चारित्र रूपी चक्र कर्मशत्रु की सेना का विध्वंस करके भव्य जीवों को मुक्ति रूपी लक्ष्मी प्रदान करता है। इस प्रकार विद्यानन्दी आचार्य विरचित तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक नामक महान् ग्रन्थ का प्रथम अध्याय सम्बन्धी प्रथम आहिक पूर्ण हुआ। 卐
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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