________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक-३९३ बाध्यमानत्वनिक्षयेऽप्यन्योन्याश्रयानवस्थाप्रतिक्षेपः प्रदर्शित, इति स्वप्नसिद्धमसिद्धमेव, तद्वत्संवृतिसिद्धमपीति न तदाश्रयं परीक्षणं नाम / ततो न निशितान्मानाद्विना तत्त्वपरीक्षणम्। ज्ञाने येनाद्वये शून्येऽन्यत्र वा तत्प्रतन्यते // 160 // प्रमाणासंभवाद्य वस्तुमात्रमसंभवि। मिथ्र्यकांतेषु का तत्र बंधहेत्वादिसंकथा / / 161 // प्रमाणनिष्ठा हि वस्तुव्यवस्था तनिष्ठा बंधहेत्वादिवार्ता, न च सर्वथैकांते प्रमाणं संभवतीति वक्ष्यते। स्याद्वादिनामतो युक्तं यस्य यावत्प्रतीयते / कारणं तस्य तावत्स्यादिति वक्तुमसंशयम् // 16 // - इस अस्वप्न ज्ञान में स्वतः और परत: निश्चय हो जाता है, ऐसा सिद्ध करने वाले कथन से स्वप्न ज्ञान के भी बाध्यमानत्व का निर्णय हो जाने पर अन्योऽन्याश्रय और अनवस्था दोष का निराकरण दिखाया गया है। अर्थात् स्वप्न ज्ञान के प्रमाणों के द्वारा बाध्यत्व का निर्णय होने में अनवस्था और अन्योऽन्याश्रय दोष नहीं हैं। ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि अनेकान्तवाद में दोषों का अवतार नहीं होता है। इसलिए स्वप्नसिद्ध पदार्थ असिद्ध ही हैं। उसी प्रकार संवृतिसिद्ध भी सिद्ध नहीं हैं। अतः असिद्ध पदार्थ का आश्रय लेकर संवेदनाद्वैतवादी भी परीक्षण नहीं कर सकते। अर्थात् काल्पनिक अनादिकालीन अविद्या के द्वारा परीक्षा करने का प्रयास करना प्रशस्त नहीं है। वस्तुव्यवस्था प्रमाणाधीन है इससे यह सिद्ध होता है कि निश्चित प्रमाण के बिना तत्त्व का परीक्षण नहीं होता है। जिससे संवेदनाद्वैत में, शून्यवाद में और अन्य उपप्लववाद में, ब्रह्माद्वैतवाद आदि सम्प्रदाय में तत्त्वपरीक्षा का विस्तार किया जा सके। अर्थात् जो प्रमाणतत्त्व को नहीं मानते हैं, वे तत्त्व की परीक्षा नहीं कर सकते हैं॥१६० // जिनके सिद्धान्त में प्रमाण की असंभवता है, प्रमाणतत्त्व को स्वीकार नहीं किया है, उनके वस्तु मात्र का होना भी संभव नहीं है। उन मिथ्या एकान्तों में बन्ध, बन्ध के कारण (आस्रव), मोक्ष और मोक्ष के कारण (संवर, निर्जरा) आदि का कथन कैसे हो सकता है। प्रमाणतत्त्व के बिना किसी भी वस्तु की सिद्धि नहीं हो / सकती॥१६१॥ क्योंकि वस्तु (पदार्थों, तत्त्वों) की व्यवस्था प्रमाणाधीन है। तथा जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष रूप तत्त्वों की व्याख्या, वार्ता प्रमाण के द्वारा ही होती है। परन्तु सर्वथा एकान्तवाद में प्रमाण तत्त्व की सिद्धि नहीं होती है। इसका कथन आगे करेंगे। * अतः स्याद्वाद मत में जिस कार्य के जितने भी कारण प्रतीत होते हैं, उन सर्व कारणों की समग्रता से कार्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा नि:संशय कथन कर सकते हैं।॥१६२॥