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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३९१ - कस्यचित्कंचित्कदाचित्संतोषहेतोरस्वप्नत्वे तु न कश्चित्स्वप्नो नाम / न च संतोषहेतुत्वेन वस्तुत्वं व्याप्तं, क्वचित्कस्यचिद् द्वेषात् संतोषाभावेऽपि वस्तुत्वसिद्धेः। नापि वस्तुत्वेन संतोषहेतुत्वमवस्तुन्यपि कल्पनारूढे रागात् कस्यचित्संतोषदर्शनात्। ततः सुनिशितासंभवद्वाधकोऽस्वप्नोऽस्तु। बाध्यमानः पुनः स्वप्नो नान्यथा तद्भिदेक्ष्यते / स्वतः क्वचिदबाध्यत्वनिशयः परतोऽपि वा // 158 // कारणद्वयसामर्थ्यात्संभवन्ननुभूयते। परस्पराश्रयं तत्रानवस्थां च प्रतिक्षिपेत् // 159 // तथा सन्तोषहेतुत्व के साथ वस्तुपना व्याप्त नहीं है। अर्थात् जो सन्तोष का कारण है, वही वस्तुभूत है। ऐसी कोई व्याप्ति नहीं है। क्योंकि किसी जीव को किसी पदार्थ में द्वेष हो जाने से संतोष न होने पर भी पदार्थ का वस्तुपना सिद्ध है। अर्थात् वस्तुभूत कूडा, नारक आदि पर्याय सन्तोषकारी नहीं होते हुए भी वस्तुभूत हैं। तथा यह भी व्याप्ति नहीं है कि जो-जो वस्तुभूत है, वही संतोषकारक है। क्योंकि राग के कारण किसी जीव को कल्पना आरूढ़ अवस्तु में भी सन्तोष (आनन्द) होता हुआ देखा जाता है अर्थात् काल्पनिक आम, अमरूद या हाथी, घोड़े आदि के खिलौनों को देखकर भी संतोष होता है। इसलिए जिस पदार्थ के अस्तित्व में बाधक प्रमाणों के असंभव होने का निश्चय है, वही अस्वप्न पदार्थ है। ऐसा निर्णय करना चाहिए। जिस पदार्थ में बाधक प्रमाणों के असंभव का निश्चय है वह अस्वप्न (सत्यार्थ) है। और जो प्रमेय पदार्थ बाधक प्रमाणों से बाधित है, वह स्वप्न (असत्य) है। अन्यथा स्वप्न और अस्वप्न का भेद दृष्टिगोचर नहीं होता है। प्रमेय में अबाध्यत्व का निश्चय कहीं पर स्वतः होता है और कहीं पर परत: होता है अर्थात् अभ्यास दशा में स्वतः निश्चय होता है और अनभ्यास दशा में परत: निश्चय होता है॥१५८॥ कारणद्वय (अंतरंग और बहिरंग कारण) के सामर्थ्य से होने वाले अबाधितपने का निश्चय होना अनुभव में आ रहा है। अर्थात् अभ्यास दशा में जैसे जलज्ञान का अबाधितपना स्वयं प्रतीत होता है और अनभ्यास दशा में शीतल वायु आदि के कारण अबाधितपने का निश्चय हो जाता है कि यहाँ जल है। इसमें परस्पराश्रय दोष भी नहीं है कि स्नान आदि क्रियाओं से जल का अबाधितपना सिद्ध होता हो और जलज्ञान के अबाधित सिद्ध होने पर स्नान आदि क्रियाओं का अबाधितपना सिद्ध होता हो। क्योंकि उत्तरकाल में होने वाली अर्थक्रियाओं से पूर्व काल के ज्ञान का अबाधितपना सिद्ध हो जाता है। यदि उन क्रियाओं में कोई संशय हो तो दूसरों से निर्णय कर लिया जाता है। तथा इसमें अनवस्था दोष का भी निराकरण कर दिया गया है। क्योंकि दूसरों के द्वारा अबाधितपने का निर्णय करने में , अनवस्था दोष नहीं आता है। दूसरे के द्वारा समझाने पर वस्तु का निर्णय हो जाता है॥१५९॥ .
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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