________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३९० स्वप्नसिद्धं हि नो सिद्धमस्वप्नः कोऽपरोऽन्यथा। संतोषकृन्न वै स्वप्नः संतोषं न प्रकल्पते॥१५६॥ वस्तुन्यपि न संतोषो द्वेषात्तदिति कस्यचित् / अवस्तुन्यपि रागात् स्यादित्यस्वप्नोस्त्वबाधितः / / 157 // यथा हि स्वप्नसिद्धमसिद्धं तथा संवृतिसिद्धमप्यसिद्धमेव, कथमन्यथा स्वप्नसिद्धमपि सिद्धमेव न भवेत्तथा च न कशित्ततोऽपरोऽस्वप्नः स्यात्। संतोषकार्यस्वप्न इति चेन्न, स्वप्नस्यापि संतोषकारित्वदर्शनात् / कालांतरे न स्वप्नः संतोषकारी इति चेत्, समानमस्वप्ने। सर्वेषां सर्वत्र संतोषकारी न स्वप्न इति चेत्, तादृगस्वप्नेऽपि। (बौद्ध कहते हैं) स्वप्न संतोष करने वाला नहीं है और जागृत दशा संतोष कर देती है- यह दोनों में अन्तर है तो ऐसी कल्पना करना भी युक्त नहीं है। क्योंकि संतोष करने और न करने की अपेक्षा जागृत दशा और स्वप्न अवस्था समान ही हैं। किसी को द्वेष के कारण जागृत अवस्था में परमार्थभूत वस्तु में भी संतोष नहीं होता है और किसी को राग के कारण स्वप्न दशा में काल्पनिक वस्तु में भी संतोष हो जाता है। अतः अस्वप्न (परमार्थभूत वस्तु) का निर्दोष लक्षण यही मानना चाहिए जो त्रिकाल में उत्तरवर्ती बाधक प्रमाणों से रहित हो।।१५६-१५७॥ . जिस प्रकार स्वप्नसिद्ध पदार्थ असिद्ध है, उसी प्रकार संवृति (कल्पना) सिद्ध पदार्थ भी असिद्ध ही है। अन्यथा (यदि ऐसा नहीं माना जाता है तो) स्वप्न की सिद्धि क्यों नहीं हो सकती है ? और ऐसा होने पर स्वप्न से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ यानी जागृत अवस्था का तत्त्व अस्वप्न रूप नहीं हो सकेगा। ___ अस्वप्न (जागृतावस्था में होने वाले पदार्थ) संतोषकारी है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि स्वप्न भी सन्तोषकारी देखे जाते हैं। अर्थात् शुभ स्वप्न देखने से मन आह्लादित होता है। यदि बौद्ध कहे कि स्वप्न कुछ क्षण के लिए सन्तोषकारी हैं, कालान्तर में स्वप्न सन्तोषकारी नहीं होते हैं- तंब तो यह कालान्तर में असन्तोषकारीपना जागृत अवस्था वाले पदार्थों में भी पाया जाता है। अतः दोनों समान हैं। अर्थात् जागृत अवस्था में भोग में आने वाली भोग्योपभोग्य वस्तु भी सेवन करते समय आनन्ददायक प्रतीत होती है। कालान्तर में दुःख रूप प्रतीत होती है तथा उनके सेवन में संतोष भी नहीं होता है। पुनःपुनः भोगने की भावना बनी रहती ___ यदि कहो कि स्वप्न सर्व जीवों को सर्वत्र संतोषकारी नहीं है, तो स्याद्वादी यों कह सकते हैं कि अस्वप्न भी सर्व जीवों के सर्वत्र सन्तोषकारी नहीं है। अस्वप्न में भी यह बात घटित होती है। रोगी को भोजन करने में आनन्द नहीं आता है। योगी को भोग रुचिकर नहीं हैं। किसी भी जीव को किसी-न-किसी स्थान पर किसी समय में भी जो पदार्थ सन्तोष का कारण है, वह अस्वप्न है, ऐसा कहने पर तो कोई भी स्वप्न नहीं रह सकता है। क्योंकि स्वप्न भी किसी समय में किसी जीव को किसी स्थान पर सन्तोषकारी होता है। जैसे तीर्थंकर की माता के देखे हुए स्वप्न आनन्दकारी होते हैं। अतः स्वप्न और अस्वप्न के निर्णय की कोई परिभाषा नहीं होगी।