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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 352 प्रमादानामप्रमत्तादिष्वभावात् कषायाणामकषायेष्वसंभवात् योगानामयोगेऽनवस्थानादिति तेषां संयमे नांतर्भावो विवक्षितः। प्रतिनियतविशेषापेक्षया तु तेषामसंयमेऽनन्तर्भावात् पंचविध एव बंधहेतुः मोहद्वादशक क्षयोपशमसहभाविनां प्रमादकषाययोगानां विशिष्टानामसंयतेष्वभावात्कषायोपशमक्षयभाविनां च प्रमत्तकषायसंयतेष्वप्यभावात् सर्वेषां स्वानुरूपबंधहेतुत्वाप्रतीघातात्।। नन्वेवं पंचधा बंधहेतौ सति विशेषतः। प्राप्तो निर्वाणमार्गोऽपि तावद्धा तन्निवर्तकः // 110 / / उन छठे आदि प्रत्येक गुणस्थान में नियत विशेष-विशेष रूप से होने वाले प्रमाद, कषाय और योग विशेषों की अपेक्षा होने पर तो उन प्रमाद आदिकों को असंयम में गर्भित नहीं करते हैं। क्योंकि वे असंयतों में नहीं पाये जाते हैं। उसको तीन प्रकार न मानकर बंध के हेतु पाँच प्रकार के ही इष्ट हैं। अतः बंध के पाँच हेतु बतलाये हैं। भावार्थ- मिथ्यात्व के उदय होने पर उत्तरवर्ती कारण रहें, फिर भी उनमें मिथ्यादर्शन ही प्रधान है। अविरति शब्द से अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण के उदय से होने वाले भाव ही लिये गये हैं। प्रमाद पद से सज्वलन कषाय के तीव्र उदय होने पर होने वाले पंद्रह प्रमाद भी लिये जाते हैं। अविरत जीवों के अनंतानुबंधी आदि तीन चौकड़ी के उदय के साथ होने वाले प्रमादों की यहाँ विवक्षा नहीं है। इसी प्रकार सज्वलन के अतीव मंद उदय होने पर कषाय हेतु वाला बंध होता है। योगों में से पंद्रहों भी योगों से बंध होता है। किंतु ग्यारहवें बारहवें में सम्भावित हुए नौ और तेरहवें गुणस्थान में सात योगों से होने वाले बंध की विवक्षा है। अतः विशेष प्रमाद आदि की विवक्षा होने पर वे असंयतों में कैसे भी गर्भित नहीं होते हैं। अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण चतुष्टय यों बारह चारित्रमोहनीय प्रकृतियों के क्षयोपशम के साथ होने वाले विशेष प्रमाद, कषाय और योगों का पहले असंयत के चार गुणस्थानों में सर्वथा अभाव है। चारित्रमोहनीय की अप्रत्याख्यानावरण आदि इक्कीस प्रकृतियों के उपशमन या क्षपण होने पर होने वाले कषाय और योगों का आठवें से लेकर दसवें तक के संयमियों में सद्भाव है। तथा पूर्ववर्ती छठे प्रमादी या सातवें कषाययुक्त संयमियों में अभाव है। सर्व ही जीवों के अपने-अपने अनुकूल पड़ने वाले बंध के कारणों का अविरोध है, अप्रतिघात है। भावार्थ - जितने बंध के कारण या उनके भेद-प्रभेद जिन संयमी या असंयमी गुणस्थानों में सम्भव है, बिना किसी प्रतिरोध के उन गुणस्थानों में उन-उन कारणों की सत्ता माननी चाहिए। अत: बंध के कारण उन विशेष नियत हेतुओं की अपेक्षा से पाँच कहे गये हैं। शंका - इस प्रकार विशेष रूप से बन्ध के कारणों के पाँच प्रकार सिद्ध होने पर उस बंध की निवृत्ति करने वाले मोक्ष का मार्ग भी उतनी ही संख्यावाला (पाँच प्रकार का) होना चाहिए- (अतः मोक्ष का मार्ग तीन प्रकार कैसे कहा जाता है ?) // 110 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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