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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 351 प्रमादसामान्यस्य कषायेष्वंतर्भावेऽपि न सर्वा व्यक्तयस्तत्रांतर्भवंति विकथेंद्रियाणामप्रमत्तादिष्वभावात्, कषायप्रणयनिद्राणामेव संभवात्, इति न तेषां प्रमत्तत्वं / तथा मोहद्वादशकोदयकालभाविषु तत्क्षयोपशमकालभाविषु च प्रमादकषाययोगविशेषेषु वर्तमानस्य प्रमादकषाययोगसामान्यस्याचारित्रेऽतर्भावेऽपि न प्रमत्तादीनामसंयतत्वं / स्यान्मतं / प्रमादादिसामान्यस्यासंयतेषु संयतेषु च सद्भावादसंयमे संयमे चांतर्भावो युक्तो न पुनरसंयम एव, अन्यथा वृक्षत्वस्य न्यग्रोधेऽन्ता पिनोऽपि न्यग्रोधेष्वेवांतर्भावप्रसक्ते रिति / तदसत्, विवक्षितापरिज्ञानात् / प्रमादादित्रयमसंयमे च यस्यांतर्भावीति तस्य तन्नियतत्वात्तत्रांतर्भावो विवक्षितः। उदय के समय होने वाले पहले दूसरे गुणस्थान के प्रमाद, कषाय, योग व्यक्तियों में जो ही प्रमाद, कषाय, योग, सामान्य विद्यमान हैं, मोहनीय की बारह प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय होने वाले चौथे, पाँचवें, छठे और निरतिशय सातवें गुणस्थानों में रहने वाले प्रमाद, कषाय, योग व्यक्तियों में भी वही सामान्य विद्यमान है। अतः सामान्यरूप से प्रमाद, कषाय, योग अचारित्र में गर्भित होते हुए भी प्रमत्त आदि आठों को असंयमीपना प्राप्त नहीं होता है। शंका - सामान्य रूप से प्रमाद आदि तीनों संयत और असंयत दोनों प्रकार के जीवों में पाये जाते हैं। तब ऐसी दशा में प्रमाद आदि का चारित्र और अचारित्र दोनों में अन्तर्भाव करना युक्त था। अकेले अचारित्र में ही उनको गर्भित करना अनुचित है। यदि ऐसा न मानकर अन्यथा मानोगे (अनेकों में रहने वाले सामान्य धर्म को एक ही विशेष व्यक्ति में गर्भित कर लोगे) तो निम्ब, वट आदि वृक्षों में रहने वाला वृक्षत्व सामान्य वटवृक्ष के भीतर भी व्यापक होकर विद्यमान रहेगा। अत: उन अनेकों में रहने वाले वृक्षत्व सामान्य का भी अकेले वटवृक्ष में ही गर्भित करने का प्रसंग आयेगा। अर्थात्- वट ही वृक्ष कहा जावेगा। निम्ब, जामुन आदि पेड़ न कहे जा सकेंगे। . . उत्तर - ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि हमारे कहने के अभिप्राय को आपने समझा नहीं है। जिस के सिद्धान्त में प्रमाद, कषाय और योग ये तीनों असंयम में गर्भित हो जाते हैं; उसके मत में ये तीनों ही असंयम में तो नियम से विद्यमान हैं। इसलिए उस असंयम में गर्भित करना हमको विवक्षित है। भावार्थ-बंध के कारणों में कहे गये मिथ्यादर्शन आदि पाँच के पूर्व-पूर्व कारण के रहने पर उत्तरवर्ती कारण अवश्य रहते हैं। मिथ्यादर्शन को कारण मानकर जहाँ बंध हो रहा है, वहाँ शेष चारों भी विद्यमान हैं तथा मिथ्यादर्शन की व्युच्छित्ति होने पर दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अविरति निमित्त से बंध होता है, वहाँ शेष तीन कारण भी विद्यमान हैं। एवं पाँचवें, छठे में प्रमाद हेतु से बंध होने पर कषाय और योग भी कारण हो रहे हैं और सज्वलन कषाय के उदय से सातवें, आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान में बंध हो रहा है। वहाँ नौ योग भी बंध के कारण हैं। ग्यारहवें, ...बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में केवल योग से ही एक समय की स्थिति वाले सातावेदनीय का ही बंध होता है। इस कारण प्रमाद आदि तीन का असंयम भाव में गर्भित करना ठीक है। क्योंकि असंयम में वे पूर्ण रूप से रहते हैं। किंतु संयमी गुणस्थानों में प्रमाद आदि तीन पूरे तौर से नहीं रहते हैं। प्रमादों का अप्रमत्त को आदि लेकर आगे के गुणस्थानों में अभाव है। तथा सज्वलन मंद, मंदतर, मंदतम और सूक्ष्म लोभ के उदय होने पर होने वाली कषायों का, कषायों से रहित ग्यारहवें आदि में होना सम्भव नहीं है और तेरहवें तक बंध के कारण हो रहे योगों की योगरहित चौदहवें गुणस्थान में स्थिति नहीं है। अतः उन प्रमाद, कषाय और योगों का संयम में अंतर्भाव करना हमको विवक्षित नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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