________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 349 एव, प्रमादादित्रयस्य सामान्यतोऽचारित्रेऽन्तर्भावात् / विशेषतश्श त्रयस्याचारित्रेऽन्तर्भावने को दोष? इति चेत्; विशेषत: पुनस्तस्याचारित्रांत:प्रवेशने / प्रमत्तसंयतादीनामष्टानां स्यादसंयमः // 108 // तथा च सति सिद्धांतव्याघात: संयतत्वतः। - मोहद्वादशकध्वंसात्तेषामयमहानितः / / 109 / / नन्वेवं सामान्यतोऽप्यचारित्रे प्रमादादित्रयस्यांतर्भावात्कथं सिद्धांतव्याघातो न स्यात्? प्रमत्तसंयतात्पूर्वेषामेव सामान्यतो विशेषतो वा तत्रांतर्भाववचनात्, प्रमत्तसंयतादीनां तु का अचारित्र और चौथे का अचारित्र अंतरंग कारण की अपेक्षा एक ही है, वैसे ही चारित्रमोहनीय के उदय से होने वाले प्रमाद और कषाय भी एक प्रकार से अचारित्र हैं। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का उदय न होने से यद्यपि अचारित्र भाव नहीं है, फिर भी चारित्र की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में मानी गयी है। इस अपेक्षा से चारित्र की विशेष स्वभावों से त्रुटि का अचारित्र में अंतर्भाव हो जाता है। योग भी एक प्रकार का अचारित्र है। प्रमाद कषाय और योग को विशेषरूप से अचारित्र में गर्भित करने पर आने वाले दोष . आपने प्रमाद आदि तीन को सामान्यपने से अचारित्र में गर्भित किया है। विशेषरूप से तीनों का अचारित्र में अन्तर्भाव करने पर क्या दोष आता है? ऐसी आशंका होने पर आचार्य उत्तर देते हैं। यदि विशेषरूप से उन तीनों का अचारित्र में अन्तर्भाव किया जावेगा तो छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत को आदि लेकर तेरहवें गुणस्थानी सयोगकेवली पर्यन्त आठ संयमियों के असंयमी बन जाने का प्रसंग आयेगा, और वैसा होने पर जैनसिद्धान्त का व्याघात होता है। क्योंकि जैन सिद्धान्त में उक्त आठों को संयमी कहा गया है। अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण की चौकड़ी मोहनीय कर्म की इन बारह प्रकृतियों के क्षयोपशम, उपशम और क्षयरूप ह्रास हो जाने के कारण उन आठों के असंयमीपन की हानि है॥१०८-१०९॥ - शंका - (कोई श्वेताम्बर मतानुयायी कहते हैं) प्रमाद आदि तीन का अचारित्र में सामान्यपने से भी अन्तर्भाव करने से सिद्धान्त का व्याघात क्यों नहीं है? जबकि जैन आठों गुणस्थानों में मोहनीय की बारह प्रकृतियों का हास मानते हैं तो सामान्यरूप से भी उन आठों में अचारित्र नहीं रहना चाहिए। प्रमत्तसंयतनामक छठे गुणस्थान से पहले के प्रथम से लेकर पाँचवें गुणस्थान तक पाँचों ही का दोनों सामान्य और विशेष रूप से अचारित्र में अन्तर्भाव कहा है। प्रमत्तसंयत को आदि लेकर सयोगिकेवली पर्यंत आठों गुणस्थान वालों को संयमीपना प्रसिद्ध है। इनमें चारित्रमोहनीय की पहली बारह प्रकृतियों के क्षयोपशम से छठे, सातवें में संयमीपना है। एक अपेक्षा से दसवें तक भी चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम है। क्योंकि वहाँ देशघातियों का उदय रहता है। और उपशम श्रेणी के आठवें, नौवें, दसवें में और मुख्य रूप से ग्यारहवें में सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का उपशम हो जाने से संयमीपना है तथा क्षपक श्रेणी के आठवें, नौवें, दसवें और प्रधान रूप से बारहवें में सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से संयमीपना प्रसिद्ध