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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३४३ संसारोऽपि; हीनस्थानपरिग्रहस्य दुःखफलस्य संसारत्वव्यवस्थापनत्वात् / न च किंचित्साक्षात्परंपरया वा दुःखफलं मिथ्यात्वाद्यपक्षयेप्यक्षीयमाणं दृष्टं येन हेतोर्व्यभिचारः स्यात् / गंडपाटनादिकं दृष्टमिति चेत् न, तस्य बुद्धिपूर्व चिकित्सेत्यनुमन्यमानस्य सुखफलत्वेनाभिमतत्वात् दुःखफलत्वासिद्धेः, शिशुप्रभृतीनामबुद्धिपूर्वकस्य दुःखफलस्यापि पूर्वोपात्तमिथ्यादर्शनादिकृतकर्मफलत्वेन तस्य मिथ्यादर्शनाद्यनपक्षयेऽक्षीयमाणत्वसिद्धेः। कायक्लेशादिरूपेण तपसा व्यभिचार इत्यपि न मंतव्यं, तपसः प्रशमसुखफलत्वेन दुःखफलत्वासिद्धेः। तदा संवेद्यमानदुःखस्य पूर्वोपार्जितकर्मफलत्वात् तप:फलत्वासिद्धेः। 'साक्षात्परंपरया वा दुःखफलत्वं स्यात्, संसारो मिथ्यादर्शनाद्यपक्षये क्षीयमाणश्च न स्यात्' इति सम्पूर्ण दुःखों के मूलभूत शरीरग्रहण को ही संसार हो जाने की व्यवस्था है। साक्षात् अथवा परम्परा से दःख रूप फल को उत्पन्न करने वाला कोई भी अन्य कारण नहीं देखा गया है जो मिथ्यादर्शन आदि के क्षय होने पर क्षय को प्राप्त होने वाला न होवे, जिससे कि हमारे दुःखफलत्व हेतु का व्यभिचार हो सके अर्थात् हेतु व्यभिचार दोष से रहित है। दूषित फोड़े में चीरा लगवाना आदिक दुःखफल वाले कारण देखे गये हैं। ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि बुद्धिपूर्वक चिकित्सा है ऐसा मानने वाले जीव के फोड़ा चिरवाने आदि में सुखरूप फल की प्राप्ति होना अभीष्ट है। उसमें दुःखरूप फल होना असिद्ध है। छोटे बच्चे, पशु आदि जीवों के अबुद्धिपूर्वक चिकित्सा का विचार होने पर फोड़े में चीरा लगवाने आदि में दुःख रूपी फल को देने वाला हेतु रह जाता है। वह गत जन्मों में ग्रहण किये मिथ्यात्व आदि से किये गये कर्मों का फल है। अत: उस दुःखरूप फल को मिथ्यादर्शन आदि के क्षय नहीं होने पर क्रम से नहीं क्षीण होनापन सिद्ध है। अर्थात् मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञान के क्षय होने पर जहाँ दुःखफल को पैदा करने वाले का ज्ञान है, वह तत्त्वज्ञानी के अवश्य नष्ट हो जाता है। बालक या पशु को फोड़े चीरने आदि में दुःखफलत्व का ज्ञान तो है। किन्तु उनके मिथ्याश्रद्धा, ज्ञान का क्षय नहीं हुआ है। अतः मिथ्यादर्शन के क्षय न होने से उनको दुःख देने वाले कारण का क्षय नहीं होता है। दुःखफल को उत्पन्न करने वाले कायक्लेशमय तपःस्वरूप कारण से व्यभिचार आयेगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि तपश्चरण करने से साधुओं को शान्ति सुख रूपी फल प्राप्त होता है। अतः तपश्चरण में दुःखफलपना असिद्ध है। (इन क्रियाओं का फल दुःख भोगना नहीं है। इसलिए वहाँ दुःखफलत्व हेतु के न रहने से व्यभिचार दोष नहीं है।) यदि किसी समय छठे गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज के व्यथाजन्य दुःख वेदन (अनुभव) भी हो जावे तो वह उस समय उत्पन्न हुआ दुःख पूर्व जन्मों में इकट्ठे किये गये दुष्कर्मों का फल है। उस दुःख को कायक्लेश, उपवाम आदि रूप तपस्या का फलपना असिद्ध है। अतः हमारा पूर्वोक्त दु:खफलत्व हेतु निर्दोष है। साक्षात् अथवा परम्परा से दुःखफल को देने वाला हेतु तो रह जावे और मिथ्यादर्शन आदि के यथाक्रम से क्षय होने पर संसार क्षय को प्राप्त न होवे अर्थात् हेतु रहे और साध्य न रहे। इस प्रकार हेतु के अप्रयोजक हो जाने से हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति होना संदिग्ध है। (अतः जैनों का हेतु संदिग्ध
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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