________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक-३४२ मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रापक्षये क्षीयमाणश संसार इति / अत्र न तावदयं वाद्यसिद्धो हेतुः मिथ्यादर्शनस्यापक्षयेऽसंयतसम्यग्दृष्टेरनंतसंसारस्य क्षीयमाणत्वसिद्धेः संख्यातभवमात्रतया तस्य संसारस्थितेः। तत एव मिथ्याज्ञानस्यापक्षये सम्यग्ज्ञानिनः संसारस्य क्षीयमाणत्वं सिद्धं / सम्यक्चारित्रवतस्तु मिथ्याचारित्रस्यापक्षये तद्भवमात्रसंसारसिद्धर्मोक्षसंप्राप्तेः सिद्धमेव संसारस्य क्षीयमाणत्वं / न चैतदागममात्रगम्यमेव यतोऽयं हेतुरागमाश्रयः स्यात्, तद्ग्राहकानुमानसद्भावात् / तथा हि। मिथ्यादर्शनाद्यपक्षये क्षीयमाणः संसारः साक्षात्परंपरया वा दुःखफलत्वाद्विषमविषभक्षणातिभोजनादिवत् / यथैव हि साक्षादुःखफलं विषमविषभक्षणं, परंपरयातिभोजनादि, तन्मिथ्याभिनिवेशाद्यपक्षये तत्त्वज्ञानवतः क्षीयते ततो निवृत्तेः, तथा अतः ये तीन संसार के कारण हैं। इस अनुमान में दिया गया मिथ्यादर्शन आदि के क्षय होने पर संसार का क्षय हो जाना रूप हेतु असिद्ध नहीं है। क्योंकि चौथे गुणस्थानवी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यादर्शन के नाश हो जाने पर अनन्तकाल तक होने वाले संसार का क्षय हो जाना सिद्ध हो जाता है। जिसे एक बार सम्यग्दर्शन हो गया है, वह अधिक-से-अधिक अर्ध पुद्गल परिवर्तन काल तक संसार में रह सकता है। पश्चात् अवश्य मुक्ति को प्राप्त करेगा। अत: उसकी केवल संख्यात भवों को धारण करने रूप से ही संसार में स्थिति रह जाती है। उसी प्रकार चौथे गुणस्थान में मिथ्याज्ञान के विघट जाने पर सम्यग्ज्ञानी जीव के संसार का क्षय की तरफ उन्मुख हो जाना सिद्ध है अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ होते हैं। अतः सम्यग्ज्ञानी जीव भी जिनदृष्ट संख्यात जन्मों से अधिक संसार में नहीं ठहरता है। तथा सम्यक्चारित्र वाले जीव के तो मिथ्याचारित्र के सर्वथा क्षय हो जाने पर केवल उसी जन्म का संसार शेष रहता है, यह सिद्ध है। क्षायिक चारित्र के हो जाने पर उसी जन्म में मोक्ष की समीचीन प्राप्ति हो जाती है। अत: संसार का क्षय हो जाना सम्यक्चारित्रवान के सिद्ध ही है। यह कथन केवल आगमगम्य नहीं है जिससे यह हेतु आगम आश्रित दोष से युक्त होता हो, अपितु इस हेतु का अनुग्रह करने वाले दूसरे अनुमान प्रमाण का भी सद्भाव है। तथाहि __ जैसे विषभक्षण, अधिक भोजन आदि दुःख के कारण हैं, वैसे साक्षात् या परम्परा से दुःख का कारण संसार है तथा दुःख के कारणभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के उपशम, क्षयोपशम और क्षय होने पर संसार क्षय को प्राप्त होता है। अत्यन्त भयंकर विष का भक्षण कर लेने पर साक्षात् मरण रूप फल प्राप्त होता है, अधिक भोजन करने पर या अधिक परिश्रम आदि करने पर कुछ देर पीछे ज्वर, शरीरपीड़ा आदि रोगों का स्थान बनकर कुछ दिन बाद तक दु:ख होते हैं। किन्तु कालान्तर में वे तीव्र दुःख के कारण हैं। अतिभोजन आदि का समीचीन ज्ञान श्रद्धान होने से दुःख निवृत्त हो जाता है, वैसे ही उन मिथ्यादर्शन, कुज्ञान और कुचारित्र की हानि होते-होते तत्त्वज्ञानी जीव का संसार क्षय को प्राप्त हो जाता है। उन विषभक्षण आदि दोषों से जैसे तत्त्वज्ञानी की निवृत्ति हो जाती है, वैसे ही उसके संसार का भी क्रम से क्षय होना सिद्ध हो जाता है। अनेक प्रकार के दुःख भोगना है फल जिसका ऐसे निकृष्ट स्थान शरीर का ग्रहण कर लेना ही संसार है। अर्थात्