________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 334 कालापेक्षितया वृत्तमसमर्थं यदीष्यते। व्द्यादिसिद्धक्षणोत्पादे तदन्त्यं तादृगित्यसत् // 11 // प्राच्यसिद्धक्षणोत्पादापेक्षया मोक्षवम॑नि / विचारप्रस्तुतेरेवं कार्यकारणतास्थितेः॥१२॥ नहि व्यादिसिद्धक्षणैः सहायोगिकेवलिचरमसमयवर्तिनो रत्नत्रयस्य कार्यकारणभावो विचारयितुमुपक्रांतो येन तत्र तस्यासामर्थ्य प्रसज्यते। किं तर्हि? प्रथमसिद्धक्षणेन सह; तत्र च तत्समर्थमेवेत्यसच्चोद्यमेतत् / कथमन्यथाग्निः प्रथमधूमक्षणमुपजनयन्नपि तत्र समर्थः स्यात्? धूमक्षणजनितद्वितीयादिधूमक्षणोत्पादे तस्यासमर्थत्वेन प्रथमधूमक्षणोत्पादनेऽप्यसामर्थ्यप्रसक्तेः। तथा च न किंचित्कस्यचित्समर्थं कारणं, न चासमर्थात्कारणादुत्पत्तिरिति क्वेयं वराकी. तिष्ठेत्कार्यकारणता? कालान्तरस्थायिनोऽनेः स्वकारणादुत्पन्नो धूमः कालान्तरस्थायी स्कन्ध एक रत्नत्रय में कार्यकारण भाव प्रश्न - यदि 'विशेष काल की अपेक्षा करने वाला होने से चारित्रगुण शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है' ऐसा मानोगे तो चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होने वाला भी चारित्र सिद्ध भगवान के द्वितीयादि समय में होने वाली पर्यायों को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होगा, क्योंकि चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होने वाले चारित्र ने सिद्धों की प्रथम समय की पर्याय को ही उत्पन्न किया है द्वितीयादि को नहीं। अतः द्वितीयादि क्षण के उत्पादन में वह पूर्व के समान असमर्थ रहेगा तो द्वितीयादि समय में सिद्ध भगवान मुक्त नहीं रह सकेंगे? उत्तर - इस प्रकार कहना प्रशस्त नहीं है, क्योंकि यहाँ मोक्षमार्ग के प्रकरण में प्रथम समय की सिद्धपर्याय की उत्पत्ति की अपेक्षा से विचार प्रस्तुत होने से इस प्रकार कार्यकारणभाव की सिद्धि है अर्थात् इस सूत्र में प्रथम समय की पर्याय की उत्पत्ति की अपेक्षा से कार्य-कारण भाव है॥९१-९२॥ निश्चय से, तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ करने के प्रकरण में, दूसरे तीसरे आदि समय में होने वाली सिद्ध पर्यायों के साथ अयोगकेवली गुणस्थान के अन्त समय में होने वाले रत्नत्रय का कार्य-कारण भाव विचार करने के लिए प्रस्ताव प्राप्त नहीं है, जिससे चौदहवें गुणस्थान के अन्त समय में होने वाले उस चारित्र के द्वितीय आदि समयों में होने वाली सिद्ध पर्यायों के उत्पन्न करने में असमर्थता का प्रसंग प्राप्त हो। प्रश्न - इस रत्नत्रय में किस प्रकार का कार्य-कारण भाव है? उत्तर - प्रथम क्षण की सिद्ध पर्याय के साथ रत्नत्रय का कारण-कार्य भाव है तथा वह रत्नत्रय प्रथम सिद्ध पर्याय को उत्पन्न करने में समर्थ है। अत: उपर्युक्त कुचोद्य करना प्रशंसनीय नहीं है। यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो अग्नि रूपी कारण प्रथम समय की धूम की पर्याय को उत्पन्न करता हुआ भी वहाँ धूम के उत्पन्न करने में समर्थ कैसे होगा? अर्थात् सर्व उत्तरवर्ती धूम पर्यायों को तो अग्नि उत्पन्न नहीं कर सकती। यदि प्रथम क्षण की धूम पर्याय से उत्पन्न हुई द्वितीय समय की पर्याय और द्वितीय समय की धूम पर्याय से संभूत तृतीय आदि समय की धूम पर्याय को समुत्पन्न करने में अग्नि का सामर्थ्य नहीं है तो प्रथम समय की धूम पर्याय को पैदा करने का सामर्थ्य भी उस अग्नि में नहीं होने का प्रसंग आवेगा और ऐसा होने पर कोई भी कारण किसी भी कार्य का समर्थ कारण नहीं रहेगा। तथा असमर्थ कारण से कार्य की उत्पत्ति होती नहीं है अतः बेचारी यह कार्य-कारणता कहाँ रह सकेगी अर्थात् सर्व कार्य-कारण भाव भी सर्वथा नष्ट हो जायेगा।