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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 333 तदुत्पादप्रसक्तेः / तथा चान्योन्याश्रयणात् सिद्धे नामाद्यपातिक्षये तन्निर्जरणशक्त्याविर्भावात्तत्सिद्धौ नामाद्यपातिक्षयात् / इति चारित्रमोहस्तस्याः प्रतिबंधकः सिद्धः। क्षीणकषायप्रथमसमये तदाविर्भावप्रसक्तिरपि न वाच्या, कालविशेषस्य सहकारिणोऽपेक्षणीयस्य तदा विरहात् / प्रधानं हि कारणं मोहक्षयो नामादिनिर्जरणशक्ते योगकेवलिगुणस्थानोपान्त्यान्त्यसमयं सहकारिणमन्तरेण तामुपजनयितुमलं सत्यपि केवले ततः प्राक्तदनुत्पत्तेरिति / न सा मोहक्षयनिमित्ताऽपि क्षीणकषायप्रथमक्षणे प्रादुर्भवति, नापि तदावरणं कर्म नवमं प्रसज्यते इति स्थितं कालादिसहकारिविशेषापेक्षं क्षायिकं चारित्रं क्षायिकत्वेन संपूर्णमपि मुक्त्युत्पादने साक्षादसमर्थम् केवलात्प्राक्कालभावि तदकारकम् / केवलोत्तरकालभावि तु साक्षान्मोक्षकारणं संपूर्ण केवलकारणकमन्यथा तदघटनात् / ___ नामादि अघातिया कर्म भी सर्व कर्मों की नाशक चारित्रशक्ति के प्रतिबन्धक नहीं हैं- क्योंकि ऐसा मानने पर तो उन नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्म के क्षय होने के पश्चात् उस शक्ति के उत्पन्न होने का प्रसंग आयेगा। तथा ऐसा मानने पर अन्योऽन्याश्रय दोष भी आयेगा कि नामादि अघातिया कर्मों का क्षय सिद्ध हो जाने पर उन कर्मों के निर्जरण करने की शक्ति का प्रादुर्भाव होगा और उस शक्ति के प्रादुर्भाव होने पर नामादि अघातिया कर्मों का नाश होगा। इसलिए उस सर्वकर्मनाशक शक्ति का प्रतिबन्धक चारित्रमोह ही सिद्ध होता है। ___ सर्व कर्मों की नाशक शक्ति का प्रतिबन्धक चारित्रमोहनीय को मान लेने पर क्षीणकषाय के प्रथम समय में ही उस चारित्र शक्ति के प्रादुर्भाव का प्रसंग आयेगा, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए- क्योंकि सम्पूर्ण कार्यों के प्रति अवश्य अपेक्षणीय कालविशेष सहकारी कारणों का १२वें गुणस्थान के प्रथम समय में अभाव है। अत: नामादि सर्व अघातिया कर्मों की नाशक शक्ति के उत्पादक मोहनीय कर्म का क्षय ही प्रधान कारण है तथापि वह मोहनीय कर्म का क्षय अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य अन्तिम समय रूप सहकारी कारण के बिना सर्वकर्मनाशक शक्ति को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। तथा १३वें गुणस्थान के प्रथम समय में केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी १४वें गुणस्थान के उपान्त्य और अन्तिम समय के पूर्व वह शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती और मोहक्षय के निमित्त से होने पर भी वह सर्वकर्मनाशक शक्ति क्षीणकष १२वें गुणस्थान के प्रथम समय में प्रगट नहीं हो सकती। और उस शक्ति के प्रतिबन्धक चारित्र मोहनीय कर्म के सिद्ध हो जाने पर उस शक्ति के आवरण नौवें कर्म का प्रसंग भी नहीं आता। अत: यह सिद्ध हुआ कि क्षायिकत्व की अपेक्षा चारित्र पूर्ण हो जाने पर भी वह कालादि सहकारी कारणों की विशेष अपेक्षा होने से साक्षात् मुक्ति के उत्पादन में समर्थ नहीं है। केवलज्ञान के पूर्व में होने वाला क्षायिक चारित्र मुक्ति का कारण नहीं है। क्योंकि मोक्ष के हेतु तीनों रत्नों की पूर्णता मानी गई है। केवलज्ञान के उत्तरकाल में होने वाला चारित्र जब अपने सहकारी कारण विशेष से परिपूर्ण हो जाता है तब साक्षात् मोक्ष का कारण होता है। अतः चारित्र की पूर्णता का कारण केवलज्ञान है, क्योंकि केवलज्ञान के बिना चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होने वाले चारित्र की पूर्णता नहीं हो सकती। अतः केवलज्ञान के होने पर भी चारित्र की पूर्णता भजनीय है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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