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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 322 ज्ञानोत्पत्तौ हि सदृष्टिस्तद्विशिष्टोपजायते। पूर्वाविशिष्टरूपेण नश्यतीति सुनिश्चितम् // 73 // चारित्रोत्पत्तिकाले च पूर्वदृग्ज्ञानयोश्च्युतिः। चर्याविशिष्टयोर्भूतिस्तत्सकृत्त्रयसम्भवः // 74 // दर्शनपरिणामपरिणतो ह्यात्मा दर्शनं, तदुपादानं विशिष्टज्ञानपरिणामस्य निष्पत्ते: पर्यायमात्रस्य निरन्वयस्य जीवादिद्रव्यमात्रस्य च सर्वथोपादानत्वायोगात् कूर्मरोमादिवत् / तत्र नश्यत्येव दर्शनपरिणामे विशिष्टज्ञानात्मतयात्मा परिणमते, विशिष्टज्ञानासहचारितेन रूपेण दर्शनस्य विनाशात्तत्सहचरितेन रूपेणोत्पादात् / अन्यथा विशिष्टज्ञानसहचरितरूपतयोत्पत्तिविरोधात् पूर्ववत्। तथा दर्शनज्ञानपरिणतो जीवो दर्शनज्ञाने, ते चारित्रस्योपादानं, पर्यायविशेषात्मकस्य द्रव्यस्योपादानत्वप्रतीतेर्घटपरिणमनसमर्थपर्यायात्मकमृद्रव्यस्य घटोपादानवत्त्ववत् / तत्र नश्यतोरेव क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति में कथंचित् विशिष्ट सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है और पूर्व के अविशिष्ट रूप से सम्यग्दर्शन का नाश सुनिश्चित है। उसी प्रकार चारित्र की उत्पत्ति के काल में पूर्व के सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान का नाश और चर्याविशिष्ट सम्यग्दर्शन, ज्ञान की उत्पत्ति होती है, अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों एक साथ उत्पन्न होते हैं, कथंचित्, न कि सर्वथा / / 73-74 / / दर्शन परिणाम (पर्याय) से परिणत आत्मा ही दर्शन है, वह आत्मा ही विशिष्ट ज्ञान पर्याय / की निष्पत्ति का उपादान कारण है। क्योंकि कूर्म (कछुवे) के रोम के समान पर्याय मात्र वा निरन्वय द्रव्य मात्र के सर्वथा उपादानत्व का अयोग है। बिना अन्वयी द्रव्य के केवल पूर्ववर्ती पर्याय उत्तर पर्याय का उपादान नहीं हो पाती है और पर्यायों से रहित अकेला जीव द्रव्य भी ज्ञान दर्शन आदि का सर्व प्रकार से उपादान कारण नहीं है। जैसे कछुवे के बाल आदि असत् पदार्थ हैं वैसे ही द्रव्यरहित पूर्व उत्तर पर्यायें (बौद्ध मान्यता) और पर्यायों से रहित आत्मद्रव्य भी (सांख्य मान्यता) असत् पदार्थ है, कोई वस्तुभूत नहीं है। वहाँ पहली दर्शन पर्याय के नाश होने पर ही आत्मा विशिष्ट ज्ञानरूप पर्याय से परिणमन करता है। विशिष्ट ज्ञान के असहचारी रूप से दर्शन का विनाश और सहचारी स्वभाव सहित दर्शन का उत्पाद होता है। ऐसा नहीं मानने पर पूर्व के समान विशिष्ट ज्ञान के साथ सहचारी रूप से भी दर्शन की उत्पत्ति का विरोध आयेगा। इसी प्रकार दर्शन और ज्ञान पर्यायों से परिणत संसारी जीवद्रव्य ही ज्ञानदर्शन रूप है और ज्ञान एवं दर्शन गुण, चारित्र गुण के उपादान कारण हैं, क्योंकि पर्यायविशेषात्मक द्रव्य ही उपादान रूप से प्रतीत होता है- अर्थात् पर्याय की अपेक्षा उत्पाद व्यय और द्रव्य की अपेक्षा ध्रुवात्मक द्रव्य में उपादानता हो सकती है, सर्वथा क्षणिक वा कूटस्थ नित्य में नहीं। जैसे घट रूप परिणमन करने में समर्थ पर्यायात्मक मिट्टी द्रव्य के घट का उपादानत्व घटित हो सकता है। अतः चारित्र के असह (चारित्र के साथ नहीं होने) रूप से ज्ञान दर्शन का विनाश और चारित्र के साथ होने वाले दर्शन ज्ञान का उत्पाद
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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