SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 321 कटादिसंभूते/रणाद्यस्तित्वस्यागतिप्रसंगात्, येनोत्तरस्योपादेयस्य लाभे पूर्वलाभो नियतो न भवेत् / तत एवोपादानस्य लाभे नोत्तरस्य नियतो लाभ: कारणानामवश्यं कार्यवत्त्वाभावात् / समर्थस्य कारणस्य कार्यवत्त्वमेवेति चेन्न, तस्येहाविवक्षितत्वात् / तद्विवक्षायां तु पूर्वस्य लाभे नोत्तरं भजनीयमुच्यते स्वयमविरोधात् / इति दर्शनादीनां विरुद्धधर्माध्यामाविशेषेप्युपादानोपादेयभावादुत्तरं पूर्वास्तितानियतं न तु पूर्वमुत्तरास्तित्वगमकम् / ननूपादेयसंभूतिरुपादानोपमर्दनात् / दृष्टेति नोत्तरोद्धतौ पूर्वस्यास्तित्वसंगतिः // 71 // सत्यप्युपादानोपादेयभावे दर्शनादीनां नोपादेयस्य संभवः पूर्वस्यास्तितां स्वकाले गमयति तदुपमर्दनेन तदुद्भूतः / अन्यथोत्तरप्रदीपज्वालादेरस्तित्वप्रसक्तिः / तथा च कुतस्तत्कार्यकारणभाव: समानकालत्वात् सव्येतरगोविषाणवदित्यस्याकूतम्। सत्यं कथंचिदिष्टत्वात्प्राङ्नाशस्योत्तरोद्भवे। सर्वथा तु न तन्नाशः कार्योत्पत्तिविरोधतः // 72 // प्रसंग आता है। अतः उत्तर-उपादेय के लाभ में पूर्व-लाभ नियत नहीं है। (ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता) परन्तु उपादान कारणों के होने पर अवश्य कार्यत्व का अभाव होने से पूर्व के लाभ में उत्तर का लाभ नियत नहीं है अर्थात् पूर्व का लाभ होने पर उत्तर भजनीय है। समर्थ कारणों के मिलने पर कार्य अवश्य होता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि उन समर्थ कारणों की यहाँ विवक्षा नहीं है। .: उन समर्थ कारणों की विवक्षा होने पर तो स्वयं अविरोध होने से (तीनों की एकता होने से) पूर्व की (सम्यग्दर्शन की) प्राप्ति होने पर उत्तर (ज्ञान चारित्र) भजनीय है, ऐसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार सम्यग्दर्शनादि के विरुद्धधर्माध्यास की अविशेषता (यानी जिस प्रकार सम्यग्दर्शन, चारित्र की अपेक्षा भिन्न कारणों से उत्पन्न है, उसी प्रकार चारित्र भी है। अतः इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है) होने पर भी उपादान (कारण) उपादेय (कार्य) भाव होने से उत्तर (उपादेय) पूर्व (उपादान) के अस्तित्व का गमक (सूचक) अवश्य है, परन्तु पूर्व उत्तर के अस्तित्व का गमक नहीं है। - शंका - उपादेय की उत्पत्ति उपादान के उपमर्दन (नाश) से ही देखी गई है (उपादान के नाश होने पर ही उपादेय की उत्पत्ति होती है) अतः उत्तर की उत्पत्ति में पूर्व के अस्तित्व की संगति नहीं है / / 71 // सम्यग्दर्शनादि के उपादान-उपादेय भाव होने पर उपादेय की उत्पत्ति अपने काल में पूर्व (उपादान) के अस्तित्व को सूचित नहीं कर सकती। क्योंकि उपादान के नाश होने पर उपादेय की उत्पत्ति होती है। अन्यथा उत्तर प्रदीप के ज्वालादि का प्रसंग आता है। अर्थात् दीपक के बुझ जाने पर भी ज्वाला के रहने का प्रसंग आयेगा। अत: गाय के दायें-बायें सींग के समान सम्यग्दर्शनादि में समकालत्व होने से कार्य-कारण भाव कैसे हो सकता है? यह शंका है। समाधान - उत्तर पर्याय की उत्पत्ति में कथंचित् पूर्व का नाश इष्ट होने से शंकाकार का कथन सत्य , हैं, परन्तु कार्य की उत्पत्ति का विरोध होने से उपादेय की उत्पत्ति में उपादान का सर्वथा नाश इष्ट नहीं है॥७२॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy