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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३१४ एतेन ज्ञानवैराग्यान्मुक्तिप्राप्त्यवधारणम्। न स्याद्वादविघातायेत्युक्तं बोद्धव्यमंजसा // 56 // तत्त्वज्ञानं मिथ्याभिनिवेशरहितं सद्दर्शनमन्वाकर्षति, वैराग्यं तु चारित्रमेवेति रत्नत्रयादेव मुक्तिरित्यवधारणं बलादवस्थितं। “दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वा बंधकारणं। जन्मिनो यस्य ते न स्तो न स जन्माधिगच्छती" त्यप्यर्हन्मतसमाश्रयणमेवानेन निगदितं; दर्शनज्ञानयोः कथंचिढ़ेदान्मतांतरासिद्धः। न चात्र सर्वथैकत्वं ज्ञानदर्शनयोस्तथा। कथंचिद्भेदसंसिद्धिलक्षणादिविशेषतः॥५७॥ न हि भिन्नलक्षणत्वं भिन्नसंज्ञासंख्याप्रतिभासत्वं वा कथंचिद्भेदं व्यभिचरति; तेजोंभसोभिन्नलक्षणयोरेकपुद्गलद्रव्यात्मकत्वेपि पर्यायार्थतो भेदप्रतीतेः; शक्रपुरंदरादिसंज्ञाभेदिनो देवराजार्थस्यैकत्वेऽपि शकनपूर्दारणादिपर्यायतो भेदनिश्चयात्; जलमाप इति भिन्नसंख्यस्य इस हेतु से ज्ञान-वैराग्य से मुक्तिप्राप्ति की अवधारणा भी स्याद्वादियों के मत की विघातक नहीं है, ऐसा निर्दोष समझना चाहिए / / 56 / / मिथ्याभिनिवेश रहित तत्त्वज्ञान सम्यग्दर्शन का अनुकरण करता है और वैराग्य चारित्र स्वरूप ही है, इस प्रकार ज्ञान और वैराग्य की अवधारणा से भी बलात् 'रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण हैं' यह अवधारणा सिद्ध होती है। “दुःख में विपर्यासमति, तृष्णा और बन्ध के कारण जिस संसारी प्राणी के नहीं हैं, वह प्राणी जन्मान्तर को प्राप्त नहीं होता" इस प्रकार कहने वाले ने भी अर्हत् (जिन) मत का ही आश्रय लिया है क्योंकि दर्शन और ज्ञान में कथञ्चित् भेद होने से मतान्तर की सिद्धि नहीं हो सकती। . ज्ञान दर्शन में कथंचित् भेद सिद्ध है जिनेन्द्र के सिद्धान्त में अन्य दर्शनों के समान ज्ञान दर्शन में सर्वथा एकत्व नहीं मानते- क्योंकि संज्ञा,' लक्षण आदि विशेषता से इन दोनों में कथंचित् भेद सिद्ध है।५७॥ भिन्न लक्षणत्व तथा भिन्न संज्ञा, संख्या से प्रतिभासित होने वालों में कथंचित् भेद व्यभिचारी (विरुद्ध) भी नहीं है। लक्षण की अपेक्षा भेद- एक पुद्गलद्रव्यात्मक होने पर भी भिन्न लक्षण वाले अग्नि और पानी में पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद की (पृथक्त्व की) प्रतीति होती ही है। अथवा- संज्ञा की अपेक्षा भेद- शक्र, पुरन्दर आदि संज्ञाभेदी इन्द्र के देवराजपने की अपेक्षा एकत्व होने पर भी शक्र (जम्बू द्वीप आदि को पलटने में समर्थ), (पुरों के विनाश आदि से) पुरन्दर यानी पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद निश्चित है। अर्थात् समर्थ होने से शक्र, पुरों के विनाश से पुरन्दर, इन्दन क्रीड़ा की अपेक्षा इन्द्र कहा जाता है, नाम भेद से भेद है। संख्या की अपेक्षा भेद- जल (एकवचन है), आप (बहुवचन है)। व्याकरण की दृष्टि से जल. एकवचनात्मक शब्द 1. संज्ञा = नाम, ज्ञान और दर्शन 2. लक्षण = श्रद्धान एवं जानना। ज्ञान का जानना, दर्शन का श्रद्धान।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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