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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक- 303 यद्यत्कालतया व्यवस्थितं तत्तथैव प्रयोक्तव्यमार्षानन्यायादिति क्षायिकज्ञानात्पूर्वकालतयावस्थितं दर्शनं पूर्वमुच्यते, चारित्राच्च समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिध्यानलक्षणात् सकलकर्मक्षयनिबंधनात् ससामग्रीकात् प्राक्कालतयोद्भवात् सम्यग्ज्ञानं ततः पूर्वमिति निरवद्यो दर्शनादिप्रयोगक्रमः। प्रत्येकं सम्यगित्येतत्पदं परिसमाप्यते। दर्शनादिषु निःशेषविपर्यासनिवृत्तये // 36 // __सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति प्रत्येकपरिसमाप्त्या सम्यगिति पदं संबध्यते, प्रत्येकं दर्शनादिषु निःशेषविपर्यासनिवृत्त्यर्थत्वात्तस्य / तत्र दर्शने विपर्यासमौढ्यादयो मिथ्यात्वभेदाः शंकादयश्चातीचाराः वक्ष्यमाणाः, संज्ञाने संशयादयः, सच्चारित्रे मायादयः, प्रतिचारित्रविशेषमतीचाराश्च यथासंभविनः प्रत्येयाः। तेषु सत्सु दर्शनादीनां सम्यक्त्वानुपपत्तेः। तदेवं सकलसूत्रावयवव्याख्याने तत्समुदायव्याख्यानात् ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गो' वेदितव्य इति व्यवतिष्ठते। तत्र किमयं सामान्यतो मोक्षस्य मार्गस्त्रयात्मकः सूत्रकारमतमारूढः किं वा विशेषतः? इति शंकायामिदमाह; - . आगम और न्याय के अनुसार जो जिस काल में व्यवस्थित है उसका उसी के अनुसार प्रयोग करना चाहिए। अतः क्षायिक ज्ञान के पूर्व सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होने से सूत्र में सम्यग्दर्शन का प्रथम उल्लेख किया है। तथा सकल कर्म के क्षय के कारणभूत ससामग्रीक (सम्पूर्ण) समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति ध्यान लक्षण चारित्र से पूर्वकाल में उत्पन्न होने से ज्ञान शब्द का चारित्र से प्रथम प्रयोग किया गया है। अतः इस सूत्र में दर्शनादि का प्रयोगक्रम निर्दोष है। 'सम्यक्' पद दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रत्येक के साथ दर्शनं आदि में सम्पूर्ण विपर्यास की निवृत्ति करने के लिए यह सम्यक् पद प्रत्येक में लगा लेना चाहिए॥३६॥ दर्शन आदि प्रत्येक में सम्पूर्ण विपर्यास की निवृत्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इस प्रकार सम्यक् इस पद की परिसमाप्ति से प्रत्येक के साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए। (क्योंकि यह सम्यक् पद ही दर्शनादि के सम्पूर्ण विपर्यासों का निराकरण करने वाला है।) यहाँ सम्यग्दर्शन में मूढता (एकान्त, विपरीत, अज्ञान, विनय, संशय) आदि मिथ्यात्व के भेद और आगे कहे जाने वाले शंका आदि अतिचार विपर्यास हैं। संशय, विपरीतता, विमोहादि सम्यग्ज्ञान में विपर्यास हैं और सम्यक्चारित्र में माया आदि विपर्यास है। इसी प्रकार यथासंभव चारित्र के प्रति विशेष अतिचार भी सम्यक्चारित्र के दोष समझने चाहिए। अर्थात् जो-जो व्रतों के अतिचार हैं वे सब चारित्र के विपर्यास हैं। क्योंकि इन दोषों के रहने पर सम्यग्दर्शन आदि में समीचीनता नहीं हो सकती। इस प्रकार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः इस सूत्र के सकल अवयवभूत सम्यग्दर्शनादि के व्याख्यान में सकल समुदाय रूप सूत्र का व्याख्यान हो जाने से 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्षमार्ग है' ऐसा जानना चाहिए; यह निश्चय हो जाता है। त्रयात्मक मोक्षमार्ग- सामान्य से या विशेष से सूत्रकार ने यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप त्रयात्मक मोक्षमार्ग सामान्य से माना है या विशेष से? इस प्रकार की शंका होने पर आचार्य कहते हैं
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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