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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 298 - इदमिह संप्रधार्य ज्ञानमात्रनिबंधना सर्वपुरुषार्थसिद्धिः सम्यग्ज्ञाननिबंधना वा? न तावदाद्यः पक्षः, संशयादिज्ञाननिबंधत्वानुषंगात्, सम्यग्ज्ञाननिबंधना चेत्, तर्हि ज्ञानसम्यक्त्वस्य दर्शनहेतुकत्वात् तत्त्वार्थश्रद्धानमेवाभ्यर्हितं / तदभावे ज्ञान सम्यक्त्वस्यानुद्भूतेर्दूरभव्यस्येव। न चेदमुदाहरणं साध्यसाधनविकलमुभयोः संप्रतिपत्ते: / नन्विदमयुक्तं तत्त्वार्थ श्रद्धानस्य ज्ञानसम्यक्त्वहेतुत्वं दर्शनसम्यग्ज्ञानयोः सहचरत्वात्, सव्येतरगोविषाणवद्धेतुहेतुमद्भावाघटनात् / तत्त्वार्थश्रद्धानस्याविर्भावकाले सम्यग्ज्ञानस्याविर्भावात्तत्तद्धेतुरिति चासंगतं, सम्यग्ज्ञानस्य तत्त्वार्थश्रद्धानहेतुत्वप्रसंगात्। मत्यादिसम्यग्ज्ञानस्याविर्भावकाल एव तत्त्वार्थश्रद्धानस्याविर्भावात् / ततो न दर्शनस्य ज्ञानादभ्यर्हितत्वं ज्ञानसम्यक्त्वहेतुत्वाव्यवस्थितेरिति कश्चित् / तदसत् / अभिहितानवबोधात् / न हि सम्यग्ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वाद्दर्शनस्याभ्योऽभिधीयते / किं तर्हि? अथवा हम पूछते हैं कि सर्वार्थसिद्धि ज्ञान मात्र के निमित्त से होती है कि सम्यग्ज्ञान से होती है- इनमें आदि पक्ष (ज्ञान मात्र) तो मानना ठीक नहीं है- क्योंकि सामान्य ज्ञान मात्र से सर्वार्थसिद्धि मान लेने पर संशयादि ज्ञान के कारण भी सर्वार्थसिद्धि का प्रसंग आयेगा। यदि कहो कि सम्यग्ज्ञान से सर्वार्थसिद्धि होती है- तो ज्ञान में सम्यक्त्व का हेतु दर्शन होने से तत्त्वार्थ श्रद्धान ही पूज्य है। श्रद्धान के अभाव में सम्यग् ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, जैसे दूरभव्य को सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति नहीं होती है। दूरभव्य का उदाहरण साध्य-साधन विकल भी नहीं है क्योंकि वादी और प्रतिवादी दोनों का ही इसमें विवाद नहीं है। शंका- कोई कहता है कि- तत्त्वार्थ श्रद्धान को ज्ञान की समीचीनता का हेतु कहना उचित नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं; जैसे गाय का दायाँ और बायाँ सींग एक साथ उत्पन्न होते हैं अतः इनमें हेतुहेतुमत् भाव नहीं है। उसी प्रकार एक साथ उत्पन्न होने से दर्शन और ज्ञान में भी हेतुहेतुमद् (कारण कार्य) भाव नहीं है। तथा तत्त्वार्थश्रद्धान के उत्पत्तिकाल में सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है अतः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का हेतु है, ऐसा भी कहना असंग (ठीक नहीं) है। ऐसा कहने पर तो सम्यग्ज्ञान के भी तत्त्वार्थ श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) के हेतुत्व का प्रसंग आता है- अर्थात् सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन का हेतु होता है क्योंकि मति आदि सम्यग्ज्ञान के उत्पत्ति काल में ही तत्त्वार्थश्रद्धान उत्पन्न होता है। अतः ज्ञान में सम्यक्त्व के हेतु की अव्यवस्था होने से (सम्यग्ज्ञान में सम्यग्दर्शन के हेतु सिद्ध नहीं होने से) ज्ञान की अपेक्षा सम्यग्दर्शन पूज्य नहीं हो सकता। उत्तर- इस प्रकार शंका करना असत् (अनुचित) है- क्योंकि इस प्रकार कहने वाले ने आचार्य के अभिप्राय को नहीं समझा। आचार्य ऐसा नहीं कहते हैं कि सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति का कारण होने से सम्यग्दर्शन के पूज्यता कही जाती है। तो फिर किस लिए सम्यग्दर्शन को पूज्य कहते हो? उत्तर
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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