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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 297 विभुत्वान्न तद्विरोध इति चेत्, व्याहतमेतत् / विभुश्चैकप्रदेशमात्रश्चेति न किंचित्सकलेभ्योऽशेभ्यो निर्गतं तत्त्वं नाम सर्वप्रमाणगोचरत्वात् खरशृंगवत् / यदा त्वंशा धर्मास्तदा तेभ्यो निर्गतं तत्त्वं न किंचित् प्रतीतिगोचरता मंचतीति सांशमेव सर्वतत्त्वमन्यथार्थक्रियाविरोधात्।। तत्र चानेककारकत्वमबाधितमवबुद्ध्यामहे भेदनयाश्रयणात्। तथा च दर्शनादिशब्दानां सूक्तं कळदिसाधनत्वं। पूर्वं दर्शनशब्दस्य प्रयोगोऽभ्यर्हितत्त्वतः। ___ अल्पाक्षरादपि ज्ञानशब्दाद् द्वंद्वोऽत्र सम्मतः // 33 // दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनज्ञानचारित्राणीति इतरेतरयोगे द्वंद्वे सति ज्ञानशब्दस्य पूर्वनिपातप्रसक्तिरल्पाक्षरत्वादिति न चोद्यं, दर्शनस्याभ्यर्हितत्वेन ज्ञानात्पूर्वप्रयोगस्य संमतत्वात् / कुतोऽभ्यो दर्शनस्य न पुनर्ज्ञानस्य सर्वपुरुषार्थसिद्धिनिबंधनस्येति चेत्; ज्ञानसम्यक्त्वहेतुत्वादभ्यो दर्शनस्य हि। तदभावे तदुद्भूतेरभावाद्दूरभव्यवत् / / 34 // . विभु होने से आत्मा एक साथ नाना देशों में व्याप्त हो जाता है, इसमें कोई विरोध नहीं है, ऐसा भी नहीं कह सकते- इसका पूर्व में खण्डन किया है कि आत्मा सर्वव्यापी विभुद्रव्य है। और विभु एकप्रदेश मात्र द्रव्य भी नहीं है क्योंकि सर्व अंशों से रहित कोई भी द्रव्य प्रतीतिगोचर नहीं हो रहा है अपितु सर्व ही सत्त्व सांश ही प्रतीत हो रहे हैं- अन्यथा (सांश न होने से) अर्थक्रियांकारित्व का विरोध आता है। अतः एक ही वस्त में भेदनय के आश्रय से अनेककारकत्व अबाधित हम जानते हैं नेककारकत्व अबाधित हम जानते हैं (अबाधित सिद्ध होता है।) और एक ही वस्तु में युक्तिपूर्वक अनेककारकत्व सिद्ध हो जाने पर दर्शन आदि शब्दों के कर्तृ साधन-करण साधन एवं भावसाधन कहना युक्त (अबाधित) ही है। इस प्रकार शब्दशास्त्र के अनुसार आदिसूत्र में कहे हुए शब्दों की निरुक्ति करके अभीष्ट अर्थ को निकालने का प्रकरण पूर्ण हुआ। ज्ञान से पूर्व दर्शन शब्द के प्रयोग का कारण ___ इस सूत्र में द्वन्द्व समास से युक्त अल्प अक्षर वाले भी ज्ञान शब्द से पूर्व दर्शन शब्द का प्रयोग पूज्य होने से किया गया है॥३३॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र शब्द में इतरेतर योग में द्वन्द्व समास होने पर अल्प अक्षर वाले ज्ञान शब्द का सूत्र में प्रथम निपात (प्रयोग) करना चाहिए, ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए- क्योंकि अल्प अक्षर से भी जो पूज्य होता है, उसका पूर्व निपात होता है और ज्ञान से दर्शन पूज्य होता है अतः दर्शन का प्रयोग पूर्व में किया है, यह ठीक ही है। प्रश्न- सर्व पुरुषार्थ की सिद्धि के साधनभूत ज्ञान की अपेक्षा दर्शन में पूज्यता कैसे है? उत्तर- ज्ञान में 'सम्यग्' शब्द का (सम्यक्त्व का) हेतुत्व होने से दर्शन के पूज्यता है। सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान का अभाव है, जैसे दूरभव्य के सम्यग्दर्शन आदि का अभाव है॥३४॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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