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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 294 नन्वभिप्रेतोऽर्थो न परमार्थः सन्मनोराज्यादिवत्ततः तत्संप्राप्त्यप्राप्ती न वस्तुरूपे यतस्तद्धेतुकयोः प्रधानेतरभावयोर्वस्तुसामर्थ्यसंभूततनुत्वं सिद्ध्यत् तयोर्वास्तवतां साधयेत् इति चेत् / स्यादेवम्, यदि सर्वोऽभिप्रेतोऽर्थोऽपरमार्थ: सन् सिद्धयेत् / कस्यचिन्मनोराज्यादेरपरमार्थत्वसत्त्व-प्रतिपत्तेरबाधिताभिप्रायविषयीकृतस्याप्यपरमार्थसत्त्वसाधने चन्द्रद्वयदर्शनविषयस्यावस्तु त्वसंप्रत्ययादबाधिताखिल दर्शनविषयस्यावस्तु त्वं साध्यतामभिप्रेतत्वदृष्टत्वहेतोरविशेषात् / स्वसंवेदनविषयस्य च स्वरूपस्य कुतः परमार्थसत्त्वसिद्धिर्यत: संवेदनाद्वैतं चित्राद्वैतं वा स्वरूपस्य स्वतो गतिं साधयेत् / यदि पुन: स्वरूपस्य स्वतोऽपि गतिं नेच्छेत्तदा न स्वतः संवेद्यते नापि परतोऽस्ति च तदिति किमघशीलवचनं / न स्वतः शंका- अभिप्रेत अर्थ (इष्ट पदार्थ) परमार्थ सत् नहीं है- मनोराज्य के समान। जिस प्रकार मानसिक विकल्प परमार्थ (वास्तविक) नहीं होते उसी प्रकार अभिप्रेत अर्थ भी वास्तविक नहीं है। अभिप्रेत अर्थ वास्तविक नहीं होने से उसकी प्राप्ति और अप्राप्ति भी वास्तविक नहीं है। जिससे अभिप्रेत वस्तु की प्राप्ति और अप्राप्ति हेतुक प्रधानता और अप्रधानता की वस्तुसामर्थ्यसंभूत (वस्तु के सामर्थ्य से उत्पन्न) शरीरत्व की सिद्धि करता हुआ प्रधानता और अप्रधानता की वास्तविकता को सिद्ध कर सके अर्थात् कारण के अवास्तविक होने से उसका कार्य वास्तविक सिद्ध नहीं हो सकता? - उत्तर- आचार्य उत्तर देते हैं कि यदि सर्व ही अभिप्रेत अर्थ अपरमार्थ भूत हो तो तुम्हारा कथन सिद्ध हो सकता है (अन्यथा नहीं, परन्तु ऐसा है नहीं) क्योंकि किसी मानसिक विकल्प के अपरमार्थ सत्त्व की प्रतिपत्ति से, अबाधित अभिप्राय के द्वारा विषयीकृत को भी अपरमार्थ साधन में, दो चन्द्रमा के दर्शन विषय के अवस्तुत्व संप्रत्यय (ज्ञान) से अबाधित अखिल दृष्टिगोचर होने वाली वस्तु के अवस्तुत्व सिद्ध होगा क्योंकि अभिप्रेतत्व और दृष्टत्व इस हेतु में कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् सभी अभिप्रेतार्थ को मनोराज्य के समान अवस्तु हो जाने पर जैसे दो चन्द्रमा का दिखना अवस्तु है उसी प्रकार सत्य चन्द्रमा दर्शन भी अपरमार्थ हो जायेगा। क्योंकि अभिप्रेतत्व सभी समान है। अथवा- सभी अभिप्रेतार्थ मनोराज्य के समान अपरमार्थ कहने वालों के स्वसंवेदन और स्वरूप की परमार्थ सत्त्व सिद्धि किससे होगी, जिससे संवेदनाद्वैत, चित्राद्वैत और स्वरूप की गति को स्वतः सिद्ध किया जा सके। यदि पुनः स्वरूप की स्वतः गति (स्वरूप का जानना स्वतः) नहीं होती है ऐसा मानते हो तो जिसका संवेदन स्वतः नहीं होता है, उसका संवेदन पर से भी नहीं है- फिर वह है' ऐसे अघशील (पापशील, असत्य) वचनों से क्या प्रयोजन है?
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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