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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 293 'विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनंतधर्मिणि। सतो विशेषणस्यात्र नासतः सर्वथोदिता // 29 // न सर्वथापि सतो धर्मस्य नाप्यसतोऽनंतधर्मिणि वस्तुनि विवक्षा चाविवक्षा च भगवद्भिः समन्तभद्रस्वामिभिरभिहितास्मिन् विचारे, किं तर्हि? कथंचित् सदसदात्मन एव प्रधानताया गुणतायाश्च सद्भावात्। कुतः कस्यचिद्रूपस्य प्रधानेतरता च स्यायेनासौ वास्तवीति चेत्; स्वाभिप्रेतार्थ संप्राप्ति हेतोरत्र प्रधानता। भावस्य विपरीतस्य निश्चीयेताप्रधानता // 30 // नैवातः कल्पनामात्रवशतोऽसौ प्रवर्तिता। वस्तुसामर्थ्यसंभूततनुत्वादर्थदृष्टिवत् // 31 // कर्तृपरिणामो हि पुंसो यदा स्वाभिप्रेतार्थसंप्राप्तेर्हेतुस्तदा प्रधानमन्यदात्वप्रधानं स्यात्, तथा करणादिपरिणामोऽपि। ततः . न प्रधानेतरता कल्पनामात्रात्प्रवर्त्तितास्या वस्तुसामर्थ्यायत्तत्वादर्थदर्शनवत्।। स्याद्वाद मत में अनन्त धर्म वाले विशेष्य में सर्वथा असत् या असत् विशेषण के विवक्षा और अविवक्षा नहीं कही गई है॥२९॥ इस विवक्षा और अविवक्षा के विचार में भगवान् समन्तभद्र स्वामी ने सर्वथा (एकान्ततः) सत् (अस्ति) वा असत् (नास्ति) धर्म की अनन्त धर्मात्मक वस्तु में विवक्षा वा अविवक्षा नहीं कही है। शंकातो फिर कैसे कही है? उत्तर- अनन्त धर्मात्मक वस्तु में कथंचित् सत् रूप और कथंचित् असत् रूप तदात्मक धर्म का ही प्रधानता और गौणता से सद्भाव माना है। अर्थात् कथंचित् वस्तु सत् रूप है कथंचित् असत् रूप है। स्व-पर रूप अपेक्षा से उसमें गौण मुख्यता की विवक्षा से वर्णन किया गया है। . शंका- किसी रूप की प्रधानता और किसी रूप (धर्म) की अप्रधानता क्यों होती है जिससे विवक्षा और अविवक्षा वास्तविक होती है? उत्तर- यहाँ अपने अभिप्रेत (इच्छित) अर्थ की प्राप्ति में कारणभूत धर्म की प्रधानता होती है और इससे विपरीत धर्म की अप्रधानता (गौणता) कही गई है। अतः पदार्थ के दर्शन के समान वस्तु के स्वभावभूत सामर्थ्य से प्रधानता और अप्रधानता का शरीर उत्पन्न (संभूततनु) होने से यह विवक्षा (वक्ता की इच्छा) और अविवक्षा कल्पना मात्र से प्रवर्तित नहीं है॥३०-३१॥ क्योंकि जिस समय आत्मा का कर्तारूप परिणाम अपने इच्छित पदार्थ की प्राप्ति में कारण होता है उस समय वह प्रधान-मुख्य कहलाता है, तथा उससे भिन्न काल में (इच्छित पदार्थ की प्राप्ति में कारण नहीं होता है उस समय) वह अप्रधान (गौण) कहलाता है। इसी प्रकार करण-कारकादि भी समझने चाहिए। अतः पदार्थ के दर्शन की तरह वस्तुसामर्थ्य के आधीन होने से विवक्षा, अविवक्षा की प्रधानता और अप्रधानता कल्पना मात्र से प्रवर्तित नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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