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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 291 बहुलं" इति वचनात् तथा दर्शनाच्च / दृश्यते हि करणाधिकरणभावेभ्योऽन्यत्रापि प्रयोगो यथा निरदंति तदिति निरदनम्, स्यंदतेऽस्मादिति स्यंदनमिति। ___कथमेकज्ञानादि वस्तु कर्नाद्यनेककारकात्मकं विरोधात् इति चेन्न, विवक्षात: कारकाणां प्रवृत्तेरेकत्राप्यविरोधात् / कुतः पुनः कस्येति कारकमावसति विवक्षा कस्यचिदविवक्षेति चेत् विवक्षा च प्रधानत्वाद्वस्तुरूपस्य कस्यचित्। तदा तदन्यरूपस्याविवक्षा गुणभावतः॥२६॥ नन्वसदेव रूपमनाद्यविद्यावासनोपकल्पितं विवक्षेतरयोर्विषयो न तु वास्तवं रूपं यतः परमार्थसती षट्कारकी स्यादिति चेत् / ___भावस्य वासतो नास्ति विवक्षा चेतरापि वा। प्रधानेतरतापायाद्गनाम्भोरुहादिवत् // 27 // अभाव है' इस बात का खण्डन कर दिया गया है- क्योंकि व्याकरण शास्त्र में 'युड्व्या बहुलं' इस सूत्र से कर्म में कहे गये 'युट्' और 'णित्र' प्रत्यय कर्तृसाधन में भी पाये जाते हैं। इसी प्रकार करण अधिकरण भाव से भिन्न कारकों में भी युट्' प्रत्यय का प्रयोग देखा जाता है। जैसे कि जो नहीं खाया जाता हैवह निरदन, जिससे चलना होता है, वह स्यन्दन, इत्यादि; इस प्रकार सातों ही विभक्ति से होने वाले शब्दों में 'युट्' प्रत्यय होता है। : विवक्षाकथन .. प्रश्न- विरोध होने से एक ज्ञानादि वस्तु कर्तृ आदि अनेक कारकात्मक कैसे हो सकती है? अर्थात् एक ज्ञानादि वस्तु में कर्तृ आदि कारकों के रहने का विरोध है।' उत्तर- एक ही ज्ञानादि वस्तु का कर्तृ आदि अनेक कारकात्मक होने में कोई दोष नहीं है क्योंकि विवक्षावश कारकों की. प्रवृत्ति होती है, अतः अविरोध है। प्रश्न- पुनः, क्यों किसके कारक की विवक्षा होती है और किसके अविवक्षा होती है? उत्तर- किसी वस्तु के स्वरूप की प्रधानता होने से किसी भी एक स्वरूप की विवक्षा होती है और अन्य किसी स्वरूप की गौणता होने से अविवक्षा होती है।॥२६॥ शंका- विवक्षा अविवक्षा का रूप अनादि अविद्या की वासना से कल्पित होने से असत् है और उनका विषय भी अवास्तव है, वास्तव नहीं है। षट् कारक की प्रवृत्ति तो परमार्थ होती है- अर्थात् षट् कारक की प्रवृत्ति परमार्थ है और विवक्षा और अविवक्षा अपरमार्थ है- अपरमार्थ से परमार्थ में प्रवृत्ति कैसे हो सकती हैं? उत्तर- प्रधान और गौण का अभाव होने से आकाश के फूल के समान असत् (अभावरूप) पदार्थ के विवक्षा और अविवक्षा नहीं है॥२७॥ 1. जैनेन्द्र 2-3-94
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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