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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२९० चेन्न / अविभक्तकर्तृकस्य स्वशक्तिरूपस्य करणस्याभिधानात् / भावसाधनतायां ज्ञानस्य फलत्वव्यवस्थितेः प्रमाणत्वाभाव इति चेन, तच्छक्तेरेव प्रमाणत्वोपपत्तेः। तथा चारित्रशब्दोऽपि ज्ञेयः कर्मानुसाधनः। कारकाणां विवक्षातः प्रवृत्तेरेकवस्तुनि // 25 // चारित्रमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वात्मना चर्यते तदिति चारित्रं, चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चरतीति वा चारित्रमिति कर्मादिसाधनश्चारित्रशब्दः प्रत्येयः / ननु च "भूवादिदृग्भ्यो णित्र" इत्यधिकृत्य “चरेर्वृत्ते” इति कर्मणि णित्रस्य विधानात्, कादिसाधनत्वे लक्षणाभाव इति चेत् न, बहुलापेक्षया तद्भावात् / एतेन दर्शनज्ञानशब्दयोः कर्तृसाधनत्वे लक्षणाभावो व्युदस्त: "युड्व्या उत्तर- कर्ता को कार्य करने के लिए भिन्न करण होना ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है। क्योंकि अभिन्न कर्ता (कर्ता और करण जहाँ भिन्न-भिन्न नहीं हैं) के निज शक्ति रूप को ही करण का अभिधान किया है। अर्थात्- विभक्त कर्ता और अविभक्त कर्ता के भेद से करण दो प्रकार के हैं- जिसमें करण और कर्ता पृथक्-पृथक् होते हैं उसे विभक्त कर्तृक करण कहते हैं- जैसे 'देवदत्त परशु से वृक्ष को काटता है। इसमें परशुरूपकरण देवदत्त रूप कर्ता से भिन्न है। जिसमें कर्ता से अभिन्न करण होता है उसे अविभक्त कर्तृक करण कहते हैं जैसे अग्नि की उष्णता। उष्णता अग्नि से अभिन्न करण ईंधन को जलाती है। उसी प्रकार अविभक्त कर्तृक करण आत्मा की शक्ति है- उससे ही आत्मा जानता है। वह आत्मा से भिन्न नहीं है। शंका- भावसाधन ज्ञान शब्द में ज्ञान के फलत्व की व्यवस्थिति होने से प्रमाणता का अभाव होगा? उत्तर- ऐसा नहीं कहना- अर्थात् भावसाधन से निष्पन्न ज्ञान में प्रमाणत्व . का अभाव नहीं है- क्योंकि भावसाधन में ज्ञानशक्ति के ही प्रमाणत्व की उपपत्ति होती है। इस प्रकार (ज्ञान के समान) चारित्र शब्द भी कर्मसाधन, कर्तृसाधन और भावसाधन रूप है, ऐसा जानना चाहिए- क्योंकि एक ही वस्तु में विवक्षावश. कारकों की प्रवृत्ति होती है।॥२५॥ चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय वा क्षयोपशम के सद्भाव में आत्मा आचरण करता है (कर्तृसाधन) आत्मा के द्वारा आचरण किया जाता है (करण साधन) वा उदासीन रूप से आचरण मात्र (भावसाधन) है- वह चारित्र कहलाता है, इस प्रकार चारित्र शब्द भी कर्तृ, करण और भाव साधन से युक्त है, ऐसा जानना चाहिए। शंका- 'भूवादिदृग्भ्यो णित्रश्चरेर्वृत्तेः' इस सूत्र से कर्मसाधन में “णित्र' (युट्) प्रत्यय होकर कर्म साधन बनता है, कर्तृ और भाव साधन नहीं बनता अतः कर्तृ और भावसाधनत्व में लक्षण का अभाव है। उत्तर- कर्तृ और भाव साधन में लक्षण का अभाव है। ऐसा नहीं कहना क्योंकि बहुलता से व्याकरण शास्त्र में कर्मसाधन में कहे गये 'युट् और णित्र' प्रत्यय कर्ता आदि सभी साधनों में पाये जाते हैं। __ अतः 'बहुलापेक्षया तद्भावात्' इस वचन से दर्शन ज्ञान शब्द में 'कर्तृसाधनत्वे लक्षण का 1. उणादि. 4 / 177-78
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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