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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 227 ज्ञानशून्यस्यात्मनः कदाचित्संविदभ्रांता स्यात् / सर्वदा ज्ञानसंसर्गादात्मनो ज्ञानित्वसंवित्तिरिति चेत् औदासीन्यादयो धर्माः पुंसः संसर्गजा इति / युक्तं सांख्यपशोर्वक्तुं ध्यादिसंसर्गवादिनः / / 229 // ज्ञानसंसर्गतो ज्ञानी सुखसंसर्गतः सुखी पुमान तु स्वयमिति वदतः सांख्यस्य पशोरिवात्मानमप्यजानतो युक्तं वक्तुमौदासीन्यस्य संसर्गादुदासीनः पुरुषः चैतन्यसंसर्गाच्चेतनो, भोक्तृत्वसंसर्गाद्भोक्ता, शुद्धिसंसर्गाच्च शुद्ध इति, स्वयं तु ततो विपरीत इति विशेषाभावात् / न हि तस्यानवबोधस्वभावतादौ प्रमाणमस्ति। आत्मा में ज्ञान का संवेदन होता है, यह मानना भ्रान्ति है अर्थात् आत्मा और प्रधान का संसर्ग होने से- आत्मा में ज्ञान की भ्रान्ति होती है; ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि इस प्रकार का कथन कि 'आत्मा में ज्ञान की भ्रान्ति हैं', सर्वथा ज्ञानशून्य आत्मा में घटित हो सकता है। अर्थात् किसी समय मूल रूप से ज्ञान रहित आत्मा का भ्रान्ति रहित संवेदन होता तो कह सकते थे कि आत्मा में ज्ञान की भ्रान्ति होती है। परन्तु इसके विपरीत ज्ञान सहित आत्मा का सर्वदा ही अभ्रान्त प्रतिभास हो रहा है। सांख्य कहता है- सर्वदा ज्ञान का संसर्ग होने से आत्मा के ज्ञानीपन की संवित्ति-ज्ञप्ति होती है, वास्तव में आत्मा ज्ञानी नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि- बुद्धि सुख-दुःख आदि धर्मों को प्रकृति के संसर्ग से आत्मा में कहने वाले सांख्य रूप पशु के सिद्धान्त में "उदासीनता, भोक्तृत्व, चैतन्य आदि धर्म भी आत्मा में प्रकृति के संसर्ग से होते हैं'- ऐसा कहना युक्त होगा। अर्थात् जिस प्रकार सांख्य सिद्धान्तानुसार आत्मा में ज्ञान सुख दुःख आदि प्रकृति के संसर्ग से कहे जाते हैं, उसी प्रकार चैतन्य आदि गुण भी प्रकृति के संसर्ग से मानने युक्त होंगे॥२२९ / / ज्ञान के संसर्ग से आत्मा ज्ञानी है, सुख के संसर्ग से आत्मा सुखी है- स्वयं स्वभाव से आत्मा ज्ञानी व सुखी नहीं है। इस प्रकार कहने वाले पशु के समान आत्मा को नहीं जानने वाले, सांख्य को ऐसा भी कहना युक्त हो सकता है कि उदासीनता के संसर्ग से आत्मा उदासीन है, चैतन्य के संसर्ग से आत्मा चैतन्य है, भोक्तृगुण के संसर्ग से आत्मा भोक्ता है। शुद्धि के संसर्ग से आत्मा शुद्ध है। स्वयं तो इससे विपरीत है। अर्थात् स्वयं स्वभाव से आत्मा न उदासीन है, न भोक्ता है और न शुद्ध है। क्योंकि ज्ञान गुण के संयोग से आत्मा ज्ञानी होता है, वैसे ही चेतन गुण के संयोग से आत्मा चेतन है। इन दोनों में विशेषता का अभाव है क्योंकि आत्मा के अज्ञान स्वभाव आदि मानने में कोई प्रमाण नहीं
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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