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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 226 स्वावरणक्षयोपशमविशिष्टत्वेनासंख्यातप्रदेशत्वादिना चानुमेयः प्रवचनसमधिगम्यश्चात्यंतपरोक्षरूपेणेति निर्णेतव्यं बाधकाभावात् / स्वरूपं चेतना पुंसः सदौदासीन्यवर्तिनः। प्रधानस्यैव विज्ञानं विवर्त इति चापरे // 227 // तेषामध्यक्षतो बाधा ज्ञानस्यात्मनि वेदनात्। भ्रांतिचेन्नात्मनस्तेन शून्यस्यानवधारणात् // 228 // यथात्मनि चेतनस्य संवेदनं मयि चैतन्यं, चेतनोऽहमिति वा तथा ज्ञानस्यापि मयि ज्ञानं ज्ञाताहमिति वा प्रत्यक्षतः सिद्धेर्यथोदासीनस्य पुंसश्चैतन्यं स्वरूपं तथा ज्ञानमपि, तत्प्रधानस्यैव विवर्त ब्रुवाणस्य प्रत्यक्षबाधा। ज्ञानस्यात्मनि संवेदनं भ्रांतिरिति चेत् न, स्यात्तदैवं यदि संकोच-विस्तार वाला होने से आत्मा असंख्यातप्रदेशी है, सुख-दुःख का भोक्ता है, ऊर्ध्व गमन करने वाला है- इत्यादि के द्वारा भी आत्मा अनुमेय है। अर्थात् आत्मा के ये सब गुण अनुमान के द्वारा जाने जाते हैं और आत्मा से वे गुण अभिन्न हैं- अतः आत्मा अनुमेय है। आत्मा आगमगम्य भी है यह आत्मा आगमगम्य भी है। क्योंकि आत्मा के ज्ञानादि गुणों के अविभागप्रतिच्छेद, अगुरुलघुगुण, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि गुण आगम के द्वारा जाने जाते हैं। इस प्रकार आत्मा किसी अपेक्षा से (स्वसंवेदनज्ञान की अपेक्षा से) प्रत्यक्ष है। किसी अपेक्षा आत्मा अनुमानगम्य है। तथा अत्यन्त परोक्ष ज्ञान गुणों के अविभागीप्रतिच्छेद, अगुरुलघुगुण, षट्गुणी हानि-वृद्धि आदि की अपेक्षा आत्मा आगमगम्य है। अतः अत्यन्त परोक्ष रूप आत्मा का प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम द्वारा निर्णय करना चाहिए। क्योंकि इसमें बाधक प्रमाणों का अभाव है। इस प्रकार मीमांसक विवक्षा समाप्त हुई। अब सांख्य मत का विचार करते हैंज्ञान आत्मा का स्वभाव है, जड़ प्रकृति का पर्याय नहीं निरन्तर उदासीनता से परिर्वतन (परिणमन) करने वाले वा रहने वाले आत्मा का स्वरूप चैतन्य है। परन्तु विज्ञान तो प्रधान की पर्याय है। (प्रकृति का परिणाम है) इस प्रकार कोई (सांख्यमतानुयायी कपिल) कहता है। परन्तु उसका यह कथन प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है, क्योंकि ज्ञान का आत्मा में प्रत्यक्ष वेदन हो रहा है। अतः ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, जड़ प्रकृति की पर्याय नहीं है। आत्मा में ज्ञान का वेदन होता है यह भ्रान्ति है, वास्तव में ऐसा नहीं है। (सांख्य का) ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि ज्ञान से (उपयोग से) रहित आत्मा का निर्णय नहीं हो सकता है। सर्वदा आत्मा ज्ञान सहित ही प्रतीत होता है। कभी भी आत्मा ज्ञानरहित प्रतीत नहीं होता है॥२२७-२२८ / / ... जिस प्रकार आत्मा में चैतन्य का संवेदन होता है कि 'मेरे में चैतन्य है, अथवा मैं चैतन्य स्वरूप हूँ' (ऐसा अनुभव होता है) उसी प्रकार ज्ञान का भी मेरे में ज्ञान है' मैं ज्ञाता हूँ इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्धि हो रही है। इसलिए जैसे उदासीन आत्मा का स्वरूप चैतन्य है, उसी प्रकार ज्ञान भी आत्मा का स्वरूप है। अतः ज्ञान को जड़ प्रकृति (प्रधान) की पर्याय कहना प्रत्यक्ष ज्ञान से बाधित है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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