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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 224 ज्ञानमात्मा संवेदयते न पुनरर्थमिति किंकृतोऽयं नियमः? संवेदयमानोपि ज्ञानमात्मा ज्ञानांतरेण संवेदयते स्वतो वा? ज्ञानांतरेण चेत्, प्रत्यक्षेणेतरेण वा? न तावत्प्रत्यक्षेण सर्वस्य सर्वज्ञानस्य परोक्षत्वोपगमात्। नापीतरेण ज्ञानेन संतानांतरज्ञानेनेव तेन ज्ञातुमशक्तेः / स्वयं ज्ञातेन चेत्? ज्ञानांतरेण स्वतो वा? ज्ञानांतरेण चेत्, प्रत्यक्षेणेतरेण वेत्यादि पुनरावर्तत इति चक्रकमेतत् / स्वतो ज्ञानमात्मा संवेदयते स्वरूपवदिति चेत्, तथैव ज्ञानमर्थं स्वं च स्वतः किं न वेदयते? यतः परोक्षज्ञानवादो महामोहविजूंभित एव किं न स्यात् / कथंचित् स्व (अपने) से (अर्थान्तर) भिन्न ज्ञान का आत्मा संवेदन करता है तो फिर अपने से सर्वथा भिन्न पदार्थों को नहीं जानता है, यह नियम किस लिए किया गया हैं? (ज्ञान तो स्व-पर प्रकाशक है।) ___ज्ञान का संवेदन करने वाला आत्मा दूसरे ज्ञान से अपना संवेदन करता है कि स्वतः अपने ज्ञान से अपना संवेदन करता है? यदि आत्मा स्वसंवेदन दूसरे ज्ञान से करता है तो वह दूसरे प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अपना संवेदन करता है कि परोक्ष ज्ञान के द्वारा अपना वेदन करता है; ऐसा मानना तो उचित नहीं है- क्योंकि ऐसा मानने पर अपसिद्धान्त दोष (आपके सिद्धान्त के विरुद्ध कथन) होगा। क्योंकि मीमांसक मत में सर्व आत्माओं और सर्व ज्ञानों को परोक्ष ही स्वीकार किया है। दूसरे अपने से भिन्न परोक्ष ज्ञान के द्वारा आत्मा अपना संवेदन करता है ऐसा मानना भी उचित नहीं है- क्योंकि अन्य संतानों के द्वारा ज्ञात पदार्थों को जैसे हम नहीं जान सकते हैं- क्योंकि उन अन्य आत्माओं का ज्ञान हमको प्रत्यक्ष नहीं होता है, उसी प्रकार आत्मा से भिन्न हमारे उस परोक्ष ज्ञान के द्वारा हम घट, पट आदि को नहीं जान सकेंगे। स्वयं जाने हुए परोक्ष ज्ञान से आत्मा को जानना इष्ट करेंगे तो परोक्ष ज्ञान के द्वारा आत्मा का ज्ञान ज्ञानान्तर से होता है कि स्वतः होता है? यदि ज्ञानान्तर से होता है तो प्रत्यक्षज्ञान से होता है कि परोक्ष ज्ञान से होता है? इस प्रकार बार-बार आवृत्ति होने से चक्रक दोष आयेगा। ___ जैसे अपने स्वरूप का आत्मा स्वयं वेदन करता है, वैसे ज्ञान का भी वेदन आत्मा स्वयं करता है। ऐसा मानते हो तब तो बहिरंग पदार्थों का संवेदन आत्मा स्वयं क्यों नहीं करता है- (अवश्य करता है) इसलिए मीमांसकों का परोक्ष ज्ञानवाद महामोह से विजूंभित (व्याप्त) क्यों नहीं है। भावार्थ- जैसे आत्मा स्व को और स्व ज्ञान को स्वयं वेदन करता है, जानता है, वैसे ज्ञान बाह्य पदार्थों को भी स्व शक्ति से जान लेता है- क्योंकि ज्ञान दीपक के समान स्व-पर प्रकाशक है। परन्तु स्वयं अपने ज्ञान और आत्मा का अनुभव करते हुए भी मीमांसक अपने आत्मा को प्रत्यक्ष होना स्वीकार नहीं करते हैं, यह उनके मिथ्यात्व कर्म का उदय ही है जो स्वयं अनुभूत वस्तु का श्रद्धान नहीं करने देता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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