SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 223 प्रत्यक्षत्वप्रसंगात् / तथात्मनः परोक्षत्वे संतानांतरस्येवार्थः प्रत्यक्षो न स्यादन्यथा सर्वात्मांतरप्रत्यक्षः सर्वस्यात्मनः प्रत्यक्षोऽसौ किं न भवेत् ? सर्वथा विशेषाभावात् / ततशाप्रत्यक्षादर्थात् न कुतश्चित्परोक्षज्ञाननिश्चयोऽस्य वादिनः स्यात् येनेदं शोभेत / ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छतीति। नाप्यसिद्धसंवेदनात्पुरुषात्तन्निशयो यतोऽनवस्था न भवेत् / तल्लिंगज्ञानस्यापि परोक्षत्वे अपरानुमानानिर्णयात्तल्लिंगस्याप्यपरानुमानादिति। स्वसंवेद्यत्वादात्मनो नानवस्थेति चेत् न, तस्य ज्ञानासंवेदकत्वात् / तत्संवेदकत्वे वार्थसंवेदकत्वं तस्य किं न स्यात्? स्वतोऽर्थांतरं कथंचिद् उसी प्रकार आत्मा का प्रत्यक्ष होना न मानकर आत्मा को परोक्षत्व स्वीकार करोगे तो सन्तानान्तर आत्माओं के समान अपनी आत्मा को भी पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं होगा। अर्थात् दूसरे के ज्ञान से जैसे हम नहीं जान सकते, वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं है; वैसे हमारी आत्मा हमारे स्वसंवेदन में नहीं आयेगी तो हम प्रत्यक्ष पदार्थों को नहीं जान सकेंगे। अन्यथा (अपनी आत्मा के परोक्ष-स्वसंवेदनप्रत्यक्ष न होने पर भी पदार्थों का प्रत्यक्ष होना मानोगे तो) सम्पूर्ण अन्य मानव, पशु-पक्षियों के द्वारा ज्ञात विषय सर्व प्राणियों के प्रत्यक्ष क्यों नहीं होगा। अर्थात् दूसरों के ज्ञात विषय सब को प्रत्यक्ष हो जाने चाहिए। क्योंकि सम्पूर्ण आत्मा और सम्पूर्ण ज्ञानों के परोक्ष होने में कोई विशेषता नहीं है। सर्वथा विशेषता का अभाव ___तथा प्रत्यक्ष ज्ञान के असत्य हो जाने पर किसी भी अप्रत्यक्ष अर्थ से परोक्षवादी मीमांसक के परोक्ष ज्ञान की सत्ता का निर्णय किसी भी अनुमान से न हो सकेगा। जिससे मीमांसकों का यह कथन शोभित हो सकता हो कि “पदार्थों के ज्ञात हो जाने पर अनुमान से बुद्धि (ज्ञान) को जान लिया जाता है।" अर्थात् जब ज्ञान का निर्णय नहीं है तो ज्ञान के विषयभूत पदार्थों का निर्णय कैसे हो सकता है और बिना हेतु के बुद्धि रूप साध्य का अनुमान कैसे हो सकता है? असिद्ध संवेदन (जिसका संवेदन सिद्ध नहीं है ऐसे) वाले आत्मा के द्वारा स्वकीय परोक्षज्ञान की सत्ता का निर्णय नहीं हो सकता है। जिससे कि अनवस्था दोष न हो। अर्थात् अज्ञात अप्रत्यक्ष आत्मा से परोक्ष ज्ञान का निर्णय करने पर अनवस्था दोष अवश्य आता है। क्योंकि ज्ञान को अनुमान के द्वारा सिद्ध करने के लिये जो हेतु दिया गया है- उस हेतु के ज्ञान को भी (आप) परोक्ष मानेंगे तो उस हेतु . के ज्ञान का दूसरे अनुमान से निर्णय करना पड़ेगा और उसका तीसरे अनुमान से निश्चय करना पड़ेगा। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा। . (यदि मीमांसक यो कहें कि) आत्मा स्वसंवेद्य है इसलिए अनवस्था दोष नहीं है तो ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि मीमांसक मत में आत्मा को ज्ञान का स्वसंवेदन करने वाला नहीं माना है। यदि आत्मा को स्वसंवेदक- अपना संवेदन करने वाला मानेंगे तो आत्मा के अर्थ का संवेदन करना क्यों नहीं होगा, अवश्य होगा। अर्थात् जो ज्ञान का संवेदन करता है वह अपना संवेदन अवश्य करता है और जो ज्ञान का संवेदक नहीं है वह स्व का संवेदक भी नहीं हो सकता। यदि आत्मा अपने ज्ञान का संवेदन करता है तो वह आत्मा अर्थ का संवेदक अवश्य होगा।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy