________________ पुष्ट किया। हे देव ! यदि वे पात्रकेसरी अष्टसहस्री रूप से मेरा पालन नहीं करते तो मैं तुमको आज देख नहीं पाती।" इसका संदर्भ यह है कि अकलंक देव ने 'देवागमस्तोत्र' पर अष्टशती नामक दुरवबोधग्रन्थ लिखा। उसके निर्दोष तात्पर्य को नहीं समझने वाले कितने ही विद्वान् मानकषाय रूप ज्वर के वशीभूत होकर अष्टशती के निर्दोष तात्पर्य रूपी क्षीर को विपरीत स्वीकार कर कुपित हो गये और उस पर आक्रमण करने लगे। तब उनकी अविनीत वृत्ति (क्रिया) को देखकर श्रीमान् विद्यानंद आचार्य ने अष्टशती भाष्य ग्रन्थ को विशद करने के लिए अष्टसहस्री की रचना की। अतः अष्टसहस्री के रचयिता पात्रकेसरी इस अपर नाम को धारण करने वाले विद्यानन्दस्वामी हैं। (5) हुमचा नगर के शिलालेख से उद्धृत वाक्य से भी विद्यानंद ही पात्रकेसरी हैं, ऐसा निश्चय किया जाता है। . पं. गजाधरलालजी ने लिखा है कि इस प्रकार इन पाँच प्रमाणों से नि:संशय जाना जाता है कि विद्यानंद आचार्य का ही अपर नाम पात्रकेसरी है। मेरे द्वारा ऐसा जाना जाता है कि विद्वान् पात्रकेसरी ने जब तक दीक्षा नहीं ली थी तब तक उनका नाम पात्रकेसरी था और दीक्षा लेने के बाद उनका नाम विद्यानंद था। इसलिए श्री ब्रह्म नेमिदत महोदय ने आर्हत् पथ अनुगामित्व उल्लेख में लिखा है कि जब तक जैन दीक्षा ग्रहण नहीं की तब तक वे पात्रकेसरी नाम से विख्यात थे। जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के बाद उनका नाम विद्यानन्द था। महात्मा विद्यानंद ने स्वकीय लिखित किसी भी ग्रन्थ में पात्रकेसरी नाम को उपयुक्त नहीं समझा इसलिए उन्होंने पात्रकेसरी नाम का उल्लेख नहीं किया। भट्टारक श्रीमत्प्रभाचन्द्र और नेमिदत्त ने स्वरचित 'कथाकोष' ग्रन्थ में पात्रकेसरी की कथा इस प्रकार लिखी है .' मगध देशान्तर्गत-अहिच्छत्रपुर नगर का अनुशास्ता अवनिपाल नाम का राजा राज्य करता था। वहाँ वेदान्त के पारगामी 500 ब्राह्मण थे। उस नगर में श्रीमत् पार्श्वनाथ भगवान का जिनमन्दिर था। एक बार पाँच सौ विद्वान् ब्राह्मण जिनमन्दिर को देखने के लिए वहाँ आये। उस समय जिनभक्ति में लीन चारित्रभूषण नामक मुनिराज भगवान के सम्मुख बैठकर 'देवागम' स्तोत्र पढ़ रहे थे, जिसे सुनकर पाँच सौ विद्वानों में अग्रणी पात्रकेसरी आश्चर्यचकित हुए। . स्तोत्र सुनकर पात्रकेसरी ने चारित्रभूषण मुनिराज से कहा- “हे यतिराज! इस स्तोत्र को पुनः पढ़कर मुझे सुनाओ।" मुनिराज ने 'देवागम' स्तोत्र को शुद्ध पढ़कर सुनाया। एक बार सुनकर के ही पात्रकेसरी ने उस स्तोत्र को हृदयंगत कर लिया। उसी समय पात्रकेसरी को दर्शनमोहकर्म का क्षयोपशम होकर क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई। पात्रकेसरी ने अपने मन में विचार किया कि जीव, अजीवादि सात तत्त्वों का कथन अर्हन्मत के अनुसार ही निर्दोष है, अन्य मतावलम्बियों के द्वारा कथित निर्दोष नहीं है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान से संतुष्ट होकर वे अपनी मित्रमंडली के साथ अपने घर आ गये।