________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 201 सिद्ध्येत्? सकर्मिका धात्वर्थरूपापि विरुद्धा स्वात्मनीति चेत्, तर्हि ज्ञानं प्रकाशते चकास्तीति क्रिया न स्वात्मनि विरुद्धा? ज्ञानमात्मानं जानातीति सकर्मिका तत्र विरुद्धेति चेन्न, आत्मानं हंतीत्यादेरपि विरोधानुषंगात् / कर्तृस्वरूपस्य कर्मत्वेनोपचारान्नात्र पारमार्थिकं कर्मेति चेत्, समानमन्यत्र / ज्ञाने कर्तरि स्वरूपस्यैव ज्ञानक्रियायाः कर्मतयोपचारात् / तात्त्विकमेव ज्ञाने कर्मत्वं प्रमेयत्वात्तस्येति चेत् तद्यदि सर्वथा कर्तुरभिन्नं तदा विरोधः, सर्वथा भिन्नं चेत्कथं तत्र ज्ञानस्य शयन, भू आदि अकर्मक क्रिया का अपने आप में होने का विरोध नहीं है- परन्तु सकर्मक धातु अर्थक्रिया का तो स्व में क्रिया करने का विरोध है ही? क्योंकि सकर्मक धातु अर्थक्रिया में कर्ता भिन्न है और क्रिया भिन्न है। अत: सकर्मक क्रिया अपने आप में नहीं रहती है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो प्रकाशन और प्रतिभासन क्रिया अकर्मक हैं- अतः ज्ञान प्रकाशित हो रहा है, देदीप्यमान हो रहा है। इस प्रकार 'चकास्ति' क्रिया का अपनी आत्मा में रहने का कोई विरोध नहीं है। ज्ञान आत्मा को (अपने आपको) जानता है, इस प्रकार सकर्मक 'ज्ञा' धातु की क्रिया का तो ज्ञान में रहने का विरोध ही है? ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि- 'वह अपने को मारता है, अपना घात करता है। द्रव्य अपने में त्रिकाल विद्यमान रहता है', इत्यादि क्रियाओं के भी स्वात्मनि-क्रिया के विरोध का प्रसंग आयेगा। (परन्तु लौकिक दृष्टि में अपना घात करना आदि क्रियाएँ स्वात्मा में देखी जाती हैं।) - यज्ञदत्त अपना घात करता है- अपने को जीवित रखता है- इसमें वास्तव में यज्ञदत्त कर्म रूप नहीं है अपितु कर्ता स्वरूप यज्ञदत्त को कर्म कह दिया जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो अन्यत्र (ज्ञान में) भी समान है। अर्थात् ज्ञान अपने को जानता है- इसमें भी कर्ता को उपचार से कर्म कह दिया जाता है। ज्ञान रूप कर्ता में स्वरूप (अपने) को ही ज्ञानक्रिया का कर्मत्व रूप से उपचार कर लिया जाता है। वास्तव में, ज्ञान मुख्य रूप से अपने को ही जानता है, पर पदार्थों को उपचार से जानता है। नैयायिक कहता है- ज्ञान में कर्मत्व वास्तविक है- क्योंकि ज्ञान प्रमिति रूप क्रिया का कर्म है। तभी तो ज्ञान स्वयं अपना प्रमेय हो सकता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो वह ज्ञान का कर्मत्व यदि कर्ता से सर्वथा अभिन्न है- तब तो नैयायिक मत से विरोध आता है- क्योंकि नैयायिक एक ही पदार्थ में कर्तृत्व और कर्मत्व को नहीं मानता है। ___ यदि कर्म को कर्ता से सर्वथा भिन्न मानते हैं तो ज्ञान की जानना रूप क्रिया स्वात्मा में कैसे होती है जिससे कि स्वात्मा में क्रिया होने का विरोध हो सके। अन्यथा 'चटाई बना रहा है' यह क्रिया भी चटाई बनाने वाले की स्वात्मा में कैसे नहीं रहेगी? जिससे कि विरोध न हो सके। भावार्थ- सर्वथा भेदपक्ष में तो पद-पद पर क्रिया का विरोध होगा। कोई भी कार्य नहीं हो सकेगा। एकान्त भेद पक्ष में यह इस क्रिया को करता है, ऐसा व्यवहार भी नहीं हो सकेगा।