SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 200 ज्ञानांतरप्रत्यक्षत्वकल्पना / यत्र यथा प्रतीतिस्तत्र तथेष्टिर्न पुनरप्रतीतिकं किंचित्कल्प्यत इति चेत्, स्वार्थसंवेदकताप्रतीतितो ज्ञानस्य तथेष्टिरस्तु। ज्ञाने स्वसंवेदकताप्रतीते: स्वात्मनि क्रियाविरोधेन बाधितत्वान्न तथेष्टिरिति चेत् / का पुनः स्वात्मनि क्रिया विरुद्धा परिस्पंदरूपा धात्वर्थरूपा वा? प्रथमपक्षे तस्या द्रव्यवृत्तित्वेन ज्ञाने तदभावात् / धात्वर्थरूपा तु न विरुद्धैव भवति तिष्ठतीत्यादिक्रियायाः स्वात्मनि प्रतीतेः / कथमन्यथा भवत्याकाशं, तिष्ठति मेरुरित्यादि व्यवहार: यदि अप्रत्यक्ष ज्ञान से पदार्थ का प्रत्यक्ष होना प्रतीत होता है- ऐसा मानते हो तो अप्रत्यक्ष ज्ञानवादी मीमांसकों के भी अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा पदार्थ का प्रत्यक्ष करना सिद्ध हो जायेगा। तथा सर्वज्ञ के ज्ञान को अन्य ज्ञान से प्रत्यक्ष करने की कल्पना करना भी व्यर्थ है। नैयायिक कहता है कि जहाँ जैसी प्रतीति होती है वहाँ वैसा इष्ट कर लिया जाता है- (वैसा ही कथन . कर दिया जाता है) परन्तु जो कभी प्रतीति में नहीं आता है, ऐसे किसी भी पदार्थ की कल्पना नहीं की जाती है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ज्ञान के द्वारा स्व और पर पदार्थों की प्रतीति (ज्ञान) हो रही है। अर्थात् ज्ञान स्वपर-प्रकाशक है- यह अनुभव में आ रहा है। अतः प्रतीति के अनुसार ज्ञान को स्व और पर . पदार्थों का ज्ञाता मानना चाहिए। स्व को जानने के लिए व्यर्थ में दूसरे ज्ञान की कल्पना क्यों की जा रही है? अपनी आत्मा में क्रिया का विरोध होने से (ज्ञानस्वरूप आत्मा में जाननारूप क्रिया का विरोध होने से) ज्ञान में स्वसंवेदकता की प्रतीति बाधित हो जाती है। अर्थात् ज्ञान में स्व को जानने की क्रिया होने का विरोध है। इसलिए ज्ञान में स्व को वेदक मानने की प्रतीति में बाधा उपस्थित होने से 'ज्ञान स्वपर प्रकाशक है' यह इष्ट नहीं है। ज्ञान पर पदार्थों को ही जानता है, स्व को नहीं जानता है। इसलिए स्व को जानने के लिए ज्ञानान्तर की आवश्यकता होती है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि- स्वात्मा में कौन सी क्रिया का विरोध है अर्थात् कौन सी क्रियायें आत्मा में रहने का विरोध करती हैं? परिस्पन्दन रूप या धातु रूप या अर्थ रूप क्रिया? (असिज्ञाने तदभावात्- यह पाठ मूल प्रति में है- उसका अर्थ है तलवार के ज्ञान में असिक्रिया का अभाव है।) धातु अर्थक्रिया (पढ़ना-लिखना आदि) और हलन-चलन आदि रूप के भेद से क्रिया दो प्रकार की हैं। उनमें हलन-चलन रूप क्रिया अपने स्वरूप में रहने का विरोध करती है? अथवा धातु अर्थक्रिया अपने स्वरूप में (अपने आप में) नहीं रहती है यदि प्रथम पक्ष के अनुसार हलन-चलन रूप क्रिया स्व में नहीं होती है, ऐसा मानते हैं तो ठीक ही है- क्योंकि हलन-चलन रूप क्रिया नैयायिक मतानुसार द्रव्य में रहती है- ज्ञान में उसकी सत्ता का ही अभाव है। द्वितीय पक्ष धातु अर्थक्रिया विरुद्ध नहीं है. क्योंकि धातु अर्थक्रिया अपने में रहती है। जैसे वह ठहरा हुआ है। देवदत्त जाग रहा है। वायु बह रही है; इत्यादि धातु अर्थक्रियाओं की स्वात्मा में प्रतीति हो रही है। अन्यथा (यदि स्वात्मा में क्रिया का विरोध है तो) आकाश है, मेरु ठहरा है, वायु बह रही है, मैं सो रहा हूँ- इत्यादि व्यवहार कैसे सिद्ध हो सकता है! वस्तुतः क्रिया और क्रियावान में अभेद है। ठहरना आदि क्रिया स्वयं क्रियावान में पायी जाती है। अतः विरोध नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy