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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 178 नानाकारस्य नैकस्मिन्नध्यासोऽस्ति विरोधतः। ततो न सत्तदित्येतत्सुस्पष्टं राजचेष्टितम् // 175 // संवेदनाविशेषेऽपि द्वयोः सर्वत्र सर्वदा। कस्यचिद्धि तिरस्कारे न प्रेक्षापूर्वकारिता // 176 // नानाकारस्यैकत्र वस्तुनि नाध्यासो विरोधादिति ब्रुवाणो नानाकारं वा तिरस्कुर्वीतैकत्वं वा? नानाकारं चेत्सुव्यक्तमिदं राजधेष्टितं, संविन्मात्रवादिनः स्वरुच्या संवेदनमेकमनंशं स्वीकृत्य नानाकारस्य संवेद्यमानस्यापि सर्वत्र सर्वदा प्रतिक्षेपात्, तस्य प्रेक्षापूर्वकारित्वायोगात्। तस्मादबाधिता संवित्सुखदुःखादिपर्ययैः। समाक्रांते नरे नूनं तत्साधनपटीयसी॥१७७॥ न हि प्रत्यभिज्ञानमतिः सुखदुःखादिपर्यायात्मके पुंसि केनचिद्वाध्यते यतस्तत्साधनपटीयसी "विरोध दोष हो जाने के कारण एक पदार्थ में नानाआकारों की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। अतः पदार्थ सत् रूप नहीं है" ऐसा कहना तो सुस्पष्ट उद्दण्ड राजा की सी चेष्टा करना है क्योंकि संवेदना विशेष (ज्ञान) में अनेक आकार और एकत्व इन दोनों का सर्वत्र और सर्वकाल में समान रूप से संवेदन . होता है तो इन दोनों में से किसी एक का तिरस्कार (निषेध) और किसी दूसरे का स्वीकार करना विचारपूर्वक कार्य करना नहीं कहा जा सकता है। अर्थात्- एकत्व या अनेकत्व का सर्वथा निषेध करना विचारशीलता नहीं है॥१७५-१७६ // "एक पदार्थ में नाना आकारों के स्थित रहने का निश्चय नहीं है क्योंकि एक वस्तु में नाना आकारों के रहने का विरोध है।" इस प्रकार कहने वाला बौद्ध उन दोनों में से नाना आकारों का तिरस्कार (खण्डन) करता है? अथवा वस्तु में से एकत्व धर्म का खण्डन करता है?" प्रथम पक्ष में- यदि नाना आकारों का खण्डन करता है तो उसकी यह सुव्यक्त (स्पष्ट) उद्दण्ड राजा की सी चेष्टा है। क्योंकि शुद्ध संवेदनाद्वैत मात्र कहने वाले बौद्ध ने स्वरुचि से निरंश एक संवेदन को स्वीकार करके सर्वत्र और सर्वदा अनुभव में आने वाले नाना आकारों का खण्डन किया है। अतः उसके विचारशीलता का अयोग है। अर्थात् सर्वस्थानों में और सर्वकाल में सर्वजीवों के अनुभव में आने वाले का प्रतीतिसिद्ध नाना आकारों का निषेध करने वाला ज्ञानी कैसे हो सकता है? अतः सुख-दुःख आदि अनेक पर्यायों से समाक्रान्त एक आत्मा में अबाधित प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। इसलिये निश्चय से एक ज्ञान वा आत्मा में अनेक आकारों को सिद्ध करने वाली बुद्धि श्रेयस्कर है॥१७७॥ सुख-दुःख आदि अनेक पर्यायों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाले एक आत्मा में उत्पन्न हुआ प्रत्यभिज्ञान रूप मतिज्ञान किसी प्रमाण के द्वारा बाधित नहीं होता है, जिससे उसका सिद्ध करना
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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