________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१७७ कुतशित्प्रमातुर्विवक्षाभेदादपोद्धारकल्पनानि क्षणिकत्वाद्यनेकधर्मविषयाणि प्रवर्तन्ते परस्परापेक्षाणि सुनयव्यपदेशभांजि भवंति / तस्मादशेषकल्पनातिक्रांतं तत्त्वमिति सिद्धं साध्यते। न हि कल्प्यमाना धर्मास्तत्त्वं तत्कल्पनमात्रं वा, अतिप्रसंगात् तेनांतर्बहिश तत्त्वं तद्विनिर्मुक्तमिति युक्तमेव / तृतीयपक्षे तु प्रतीतिविरोधः / कथम्____ परोपगतसंवित्तिरनंशा नावभासते। ब्रह्मवत्तेन तन्मात्रं न प्रतिष्ठामियर्ति नः // 174 // वस्तुनः स्वभावाः कल्पनास्ताभिरशेषाभिः सुनिशितासंभवद्वाधाभी रहितं संविन्मात्रं तत्त्वमिति तु न व्यवतिष्ठते तस्यानंशस्य परोपवर्णितस्य ब्रह्मवदप्रतिभासनात् / नानाकारमेकं प्रतिभासनमपि विरोधादसदेवेति चेत्वाले ज्ञान प्रवर्त्त होते हैं। वे सभी धर्म परस्पर सापेक्ष हैं तो समीचीन हैं, सुनय के व्यपदेशभागी होते हैं और परस्पर निरपेक्ष मिथ्या कहलाते हैं। इसलिए सम्पूर्ण मिथ्या कल्पनाओं से अतिक्रान्त हो रहा तत्त्व सिद्ध है, अत: 'तत्त्व (ज्ञान तत्त्व) कल्पना रहित है' यह सिद्ध करना सिद्धसाध्य है। क्योंकि केवल कल्पना से ज्ञात धर्म वा कल्पनामात्र वास्तविक तत्त्व नहीं हैं। क्योंकि वस्तु कल्पना से आरोपित धर्म वाली या कल्पना मात्र नहीं है। वस्तु को कल्पना मात्र मानने से अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् कोई भी मन में कल्पना करके वास्तविक बन जायेगा। कोई मूर्ख अपने में राजा की या विद्वान् की कल्पना करके राजा या विद्वान् बन जायेगा। कल्पना भी वस्तुतत्त्व का स्पर्श करने वाली सिद्ध हो सकती है। इसलिए अंतरंग और बहिरंग दोनों ही तत्त्व कल्पनाओं से रहित हैं। उनसे मुक्त ही वास्तविक तत्त्व है यही कथन सुसंगत है। अत: कल्पनारोपित धर्म या कल्पना मात्र से रहितता सिद्ध होने से उनको सिद्ध करना सिद्धसाधन दोष है। ___तीसरे पक्ष में, कल्पना वस्तु का स्वभाव है, उसका अभाव मानना प्रतीतिविरुद्ध है। अर्थात् ज्ञान को अपने स्वभाव रूप ज्ञेयाकार आदि कल्पनाओं से रहित मानना लोकविरुद्ध है। यह लोकविरुद्ध कैसे है? उसका कथन करते हैं. जैसे परोपगत (ब्रह्माद्वैतवादियों के द्वारा स्वीकृत) ज्ञान अनंश (ग्राह्य-ग्राहकता आदि अंशों से रहित एक परमब्रह्म स्वरूप) प्रतिभासित नहीं होता है, वैसे ही ब्रह्म के समान अन्य बौद्धों के द्वारा स्वीकृत संवेद्य, संवेदक स्वभाव रूप अंशों से रहित शुद्धज्ञान भी प्रतिभासित नहीं होता है। इसलिए शुद्धज्ञानाद्वैत हमारे स्याद्वादमत में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता है॥१७४ // __ तृतीय पक्ष के अनुसार यदि वस्तु के स्वभावों को कल्पना मानोगे तो सम्पूर्ण बाधक प्रमाणों के असंभव होने का निश्चय कर लिया गया है जिसका, ऐसी उन स्वभाव रूप सम्पूर्ण कल्पनाओं से रहित केवल संवेदन मात्र तत्त्व व्यवस्थित नहीं है। क्योंकि परम ब्रह्म तत्त्व के समान बौद्धों के द्वारा स्वीकृत विशेषण रूप अंशों से रहित संवेदन का भी प्रतिभास नहीं होता है। अर्थात् जैसे ब्रह्माद्वैत का प्रतिभास नहीं होता है उसी प्रकार संवेदनाद्वैत भी प्रतिभासित नहीं होता है। स्याद्वाद मत में कथित नानाकार को एक प्रतिभास मानना विरुद्ध होने से असत् ही है? बौद्ध के ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं