________________ तत्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 156 सकलजनप्रसिद्धत्वात्तत्त्वांतरं, . चत्त्वार्येव तत्त्वानीत्यवधारणस्याप्य विरोधात्तस्याप्रसिद्धतत्त्वप्रतिषेधपरत्वेन स्थितत्वात्, न पुनरनाधनन्तात्मा प्रमाणाभावादिति वदंतं प्रति ब्रूमहे; द्रव्यतोऽनादिपर्यंतः सत्त्वात् क्षित्यादितत्त्ववत् / स स्यान्न व्यभिचारोऽस्य हेतो शिन्यसंभवात् // 146 // कुंभादयो हि पर्यंता अपि नैकांतनश्वराः। शाश्वतद्रव्यतादात्म्यात्कथंचिदिति नो मतम् // 147 // यथा चानादिपर्यंततद्विपर्ययरूपता। घटादेरात्मनोऽप्येवमिष्टा सेत्यविरुद्धता // 148 // आत्मतत्त्व को पृथ्वी आदि से भिन्न तत्त्व मान लेने पर भी 'पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार तत्त्व हैं ऐसी अवधारणा में कोई विरोध नहीं आता है। क्योंकि इन चार तत्त्वों का नियम करना तो सर्वथा अप्रसिद्ध आकाश, काल, मन, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, सामान्य, शक्ति, प्रेत्यभाव आदि तत्त्वों का निषेध करने में तत्पर होकर स्थित हो रहा है। किन्तु फिर गर्भ से मरण पर्यन्त रहने वाले और सम्पूर्ण .. जीवों में प्रसिद्ध हो रहे इस चेतन आत्मा का वे भूतचतुष्टय निषेध नहीं करते हैं। आत्मा अनादि अनन्त नहीं है। क्योंकि आत्मा को अनादि अनन्त सिद्ध करने वाले प्रमाण का अभाव है। अर्थात् आत्मा को अनादि अनन्त सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। समाधान- इस प्रकार कहने वाले चार्वाक के प्रति जैन आचार्य कहते हैं कि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा अनादि-अनन्त है क्योंकि सत्त्व है। जो-जो सत्त्व होता है, वह अनादि-अनन्त है जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। चार्वाक मत में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को अनादि अनन्त तत्त्व माना है। आत्मा को अनादि अनन्त सिद्ध करने में दिया ‘सत्वात्' हेतु अनेकान्त दोष से दूषित भी नहीं है। क्योंकि एकान्त रूप से नाश होने वाले पदार्थ में 'सत्त्व' हेतु के रहने की असंभवता है। अर्थात् निरन्वय नाश होने वाले पदार्थ सत्व रूप नहीं हो सकते हैं। सर्वथा नाशशील पदार्थ संसार में हैं ही नहीं // 146 // जो घट-पट आदि पदार्थ नाशशील गोचर होते हैं वे भी एकान्त से नष्ट नहीं होते हैं। क्योंकि सर्वदा स्थित (शाश्वत) रहने वाले पुद्गल द्रव्य के साथ उनका कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध रहता है। इस प्रकार स्याद्वादी हम लोगों ने स्वीकार किया है। अतः कथंचित् पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अनादि अनन्त होने से घट आदि के द्वारा ‘सत्त्व' हेतु अनेकान्त हेत्वाभास नहीं हो सकता // 147 // जैसे घटादि पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादि अनन्त हैं और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा विपरीत यानी सादि-सान्त हैं, उसी प्रकार आत्मा के भी द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादि अनन्तपन और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सादि सान्तपन इष्ट है। अतः 'सत्त्वात्' यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास भी नहीं है॥१४८॥