________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 154 कर्तृस्थस्यैव संवित्तेः सुखयोगस्य तत्त्वतः। पूर्वोत्तरविदां व्यापी चिद्विवर्तस्तदाश्रयः // 144 // स्याद्गुणी चेत् स एवात्मा शरीरादिविलक्षणः। ... कर्तानुभविता स्मर्तानुसंधाता च निशितः // 145 // सुखयोगात्सुख्यहमिति संवित्तिस्तावत्प्रसिद्धा। तत्र कस्य सुखयोगो न विषयस्येति प्रत्येयं(?) ततः कर्तृरूपः कश्चित्तदाश्रयो वाच्यस्तदभावे सुख्यहमिति कर्तृस्थसुखसंवित्त्यनुपपत्तेः। स्यान्मतं / पूर्वोत्तरसुखादिरूपचैतन्यविवर्तव्यापी महाचिद्विवर्तः कार्यस्येव सुखादिगुणानामाश्रयः कर्ता, निराश्रयाणां तेषामसंभवात् / निरंशसुखसंवेदने चाश्रयाश्रयिभावस्य वास्तविक रूप से सुख का सम्बन्ध कर्ता (आत्मा) में स्थित संवित्ति (ज्ञान) के साथ है। अतः पूर्व और उत्तर काल में होने वाले ज्ञान में व्यापक रूप से रहने वाले चैतन्य द्रव्य का धाराप्रवाह रूप से परिणत चैतन्य समुदाय ही उस सुख गुण का आधार है। अर्थात् आत्मा ही सुख-दुःख का आधार है॥१४४ // आत्मा ही ज्ञान और सुख का आश्रय है __यदि सुख गुण का आधारभूत कोई गुणी द्रव्य है तो शरीर आदि से विलक्षण, सुख-दुःख आदि का कर्ता, अनुभविता (उनका अनुभव करने वाला), स्मर्ता (स्मरण करने वाला), अनुसन्धाता (एकत्व, सादृश्य आदि विषयों का अवलम्बन लेकर स्वकीय परिणामों का प्रत्यभिज्ञान करने वाला) आत्मा ही है, ऐसा निश्चय होता है॥१४५॥ 'मैं सुखी हूँ इस प्रकार की प्रतीति तो सुख गुण के योग (आधार) से प्रसिद्ध ही है। वहाँ सुख का योग किसी विषय का नहीं है। अर्थात् इन्द्रियजन्य भोगसामग्री में सुख का योग नहीं है। ऐसा समझना चाहिए। अतः सुख का कर्ता ही कोई उस सुख का आधार कहना चाहिए। क्योंकि कर्त्ताभूत आधार के बिना 'मैं सुखी हूँ' इस प्रकार के कर्तास्थ सुख-संवेदन की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अर्थात् 'मैं सुखी हूँ' इसमें सुखी शब्द में मत्वर्थीय 'इन्' प्रत्यय का वाच्य अधिकरण स्वरूप कर्ता में स्थित होकर सुख संवित्ति की सिद्धि नहीं हो सकती। अतः 'मैं सुखी हूँ' इसमें 'मैं' का वाच्य कर्ता चेतन आत्मा ही है जो ज्ञान, सुखों का आश्रय है। शंका- पूर्वोत्तर कालों में होने वाले सुखादि रूप चैतन्य परिणामों में व्याप्त रहने वाला सबसे बड़ा चैतन्य का परिणाम (पर्याय) ही कार्य के समान सुखादि गुणों का आश्रयस्वरूप कर्ता है जैसे कि वही आत्मा जन्म-मरण आदि कार्यों का कर्ता है। बिना आधार के सुख-दुःख, जन्म-मरण आदिक कार्यों की संभवता नहीं है। (जैसे अकर्मक धातु की क्रियाएँ कर्ता में ही रहती हैं, बिना कर्ता के नहीं रह सकती हैं, उसी प्रकार सुख, कर्ता (आत्मा) में रहता है।) यदि सुख के समीचीन ज्ञान को आधेयपन, क्रियापन और पर्यायपन आदि अंशों से रहित माना जाएगा तो इसमें आश्रय-आश्रयी भाव होने का विरोध है। अतः सुखादि गुणों के आधार महाचैतन्य के भ्रान्त रूप का भी अयोग है। (अर्थात् महाचैतन्य भ्रान्त रूप भी नहीं है) क्योंकि उसमें कोई बाधक प्रमाण भी नहीं है। अर्थात् उसमें बाधक प्रमाण का भी अभाव है। तथा महाचैतन्य का भ्रम रूप होना