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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 139 प्रत्यक्षतोऽप्रतीतस्य शब्दाधुपादानस्यानुमानात्साधने परस्य यद्यदृष्टकल्पनं तदा प्रत्यक्षतो ऽप्रतीतात्काष्ठांतर्गतादग्नेरनुमीयमानादग्न्यन्तरसमुद्भवसाधने तददृष्टकल्पनं कथं न स्याद्भूतवादिनः सर्वथा विशेषाभावात् / काष्ठादेवानलोत्पत्तौ क्व तत्त्वसंख्याव्यवस्था काष्ठोपादेयस्यानलस्य काष्ठेतरत्वाभावात् पृथिवीत्वप्रसक्ते : / पार्थिवानां च मुक्ताफलानां स्वोपादाने जलेऽ न्तर्भावाजलत्वापत्तेर्जलस्य च चंद्रकांतादुद्भाव: पार्थिवत्वानतिक्रमात् / यदि पुनः काष्ठादयोऽ नलादीनां नोपादानहेतवस्तदानुपादानानलाद्युत्पत्तिः कल्पनीया। सा च न युक्ता प्रमाणविरोधात् / ततः स्वयमदृष्टस्यापि पावकाद्युपादानस्य कल्पनायां चितोऽप्युपादानमवश्यमभ्युपेयम्। प्रत्यक्ष अप्रतीत (दृष्टिगोचर नहीं होने वाले) शब्द, बिजली आदि के उपादान कारणों के अनुमान से सिद्ध करने में यदि अदृष्ट कल्पना है (अर्थात् चार्वाक शब्द के उपादान को केवल अदृष्ट कल्पना मात्र मानता है) तो काष्ठ के अन्तर्गत प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होने वाले दूसरे तत्त्व से अनुमान के द्वारा अग्नि की समीचीन उत्पत्ति सिद्ध करने में भूतवादी चार्वाक के अदृष्ट तत्त्व की कल्पना करने में स्याद्वाद मत में और चार्वाक मत में कोई अन्तर नहीं है- क्योंकि चार्वाक भी अग्नि की उत्पत्ति में अदृष्ट पूर्व अग्नि की उपादान रूप से कल्पना करता ही है। यदि चार्वाक काष्ठ से ही अग्नि की उत्पत्ति मानते हैं (काष्ठ के भीतर अदृष्ट अग्नितत्त्व स्वीकार नहीं करते हैं) तो तत्त्वों की चार संख्या की व्यवस्था कैसे होगी? क्योंकि पृथ्वी रूप काष्ठ को उपादान कारण स्वीकार कर उत्पन्न हुई उपादेय अग्नि के पार्थिव काष्ठ से भिन्नता का अभाव होने से अग्नि के पृथ्वीत्व का ही प्रसंग आता है अर्थात् काष्ठरूप पृथ्वी से अभिन्न होने से अग्नि पृथ्वी रूप ही है। * तथा इसी प्रकार पृथ्वी के विकार स्वरूप मोतियों का अपने उपादान कारण जल में अन्तर्भाव हो जाने से जल का भी अभाव हो जायेगा। अर्थात् मोती का उपादान कारण जल है और मोती काठिन्य आदि गुणयुक्त होने से पृथ्वी स्वरूप है- अतः जलतत्त्व का अभाव हो जायेगा। ___ अथवा- पृथ्वी के विकार (पर्याय) रूप चन्द्रकान्त मणि से जल की उत्पत्ति होने से जल के भी पार्थिवपने का अतिक्रमण नहीं होगा। अर्थात् जल भी अपने उपादान चन्द्रकान्त मणिरूप पृथ्वी तत्त्व में गर्भित हो जायेगा। ___ यदि पुनः काष्ठ, जल और चन्द्रकान्त मणि को अग्नि, मोती और जल का उपादान कारण नहीं माना जायेगा तब तो बिना उपादान कारण के अग्नि, मोती आदि की उत्पत्ति की कल्पना करनी पड़ेगी। परन्तु वह कल्पना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि उपादान कारण के बिना अग्नि आदि की उत्पत्ति मानने में प्रमाण से विरोध आता है। उपादान कारण ही कार्यस्वरूप परिणत होता है। . अत: यदि आप (चार्वाक) काष्ठ के भीतर स्वयं दृष्टिअगोचर अग्नि तत्त्व को दृश्यमान अग्नि की उत्पत्ति में उपादान कारण की कल्पना करते हो तो उसी से चेतन का भी उपादान कारण आत्मा आपको अवश्य स्वीकार करना चाहिए।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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