________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१३७ न ह्येकांतनश्वरा घटादयः प्रदीपादिभिरभिव्यंग्या नाम नाशकांतेऽभिव्यंग्याभिव्यंजकभावस्य विरोधान्नित्यैकांतवत् / जात्यंतरे तस्य प्रतीयमानत्वादिति प्रतिपक्षापेक्षया न घटादिभिरनेकांत: साधनस्य। ततः कथंचिच्चैतन्यनित्यताप्रसक्तिभयान शरीरादयशित्ताभिव्यंजकाः प्रतिपादनीयाः / शब्दस्य ताल्वादिवत् तेभ्यश्चैतन्यमुत्पाद्यत इति क्रियाध्याहाराव्यज्यत इति क्रियाध्याहारस्य पौरंदरस्यायुक्तत्वात् / कारका एव शरीरादयस्तस्येति चानुपपन्नं, तेषां सहकारित्वेनोपादानत्वेन वा कारकत्वायोगादित्युपदर्शयन्नाह उपादान और उपादेय दोनों एक ही तत्त्व हैं ___ एकान्त से (सर्वथा) नाशशील घटादिक पदार्थ प्रदीप आदिक के द्वारा अभिव्यंग्य (प्रकट होने योग्य) नहीं है। क्योंकि विनाश के एकान्त पक्ष में व्यंग्य (प्रगट होना) और अभिव्यंजक' (प्रगट कर देना) भाव का विरोध है। जैसे नित्य एकान्त में अभिव्यंग्य-अभिव्यंजक भाव का विरोध है। अर्थात् जैसे सर्वथा नित्य को कोई प्रगट नहीं कर सकता है और न स्वयं प्रगट हो सकता है- क्योंकि वह नित्य अभिव्यक्त है- उसी प्रकार सर्वथा अनित्य पक्ष में भी प्रगट करना और प्रगट होना रूप भाव नहीं हो सकते। सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य पक्ष के अतिरिक्त कालान्तर स्थायी कथंचित् नित्यानित्य स्वरूप जात्यन्तर पक्ष में ही व्यंग्य-व्यंजक भाव प्रतीत होते हैं। अत: चार्वाकों या नित्य-अनित्य पक्ष के प्रतिकूल स्याद्वाद मत में घटादिक के द्वारा 'शश्वदभिव्यक्ता' हेतु में अनैकान्तिक दोष नहीं आता है। कथंचित् आत्मा नित्य और कथंचित् अनित्य है। इसीलिए कथंचित् नित्यता के प्रसंग के भय से 'शरीर आदि चैतन्य के अभिव्यञ्जक हैं" ऐसा प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। जैसे तालू, कण्ठ, ओष्ठ आदि शब्द के कारक (उत्पादक) हैं उसी प्रकार शरीर, इन्द्रिय आदि के द्वारा चैतन्य (आत्मा) उत्पन्न होता है (उत्पन्न किया जाता है)। सूत्र में 'तेभ्यश्चैतन्यं' 'उनसे चैतन्य' यह क्रियारहित वाक्य है। इसमें व्यज्यते, प्रगट होता है, इस क्रिया का अध्याहार करना (क्रिया पद लगाना) पौरन्दर' के अयुक्त है। अर्थात् शरीर आदि से आत्मा प्रगट होता है, यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि चार्वाक आत्मा को मानता ही नहीं है। जो विद्यमान है उसको प्रगट करना अभिव्यंजक कहलाता है। जब आत्मा विद्यमान ही नहीं है तो शरीर आदि उसको प्रगट कैसे कर सकते हैं। _____ अथवा, शरीर आदि चैतन्य के कारक हेतु हैं- ऐसा कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि यदि शरीर आदि आत्मा के कारक हेतु हैं तो 'सहकारी कारक हैं कि उपादान कारक हैं ? परन्तु शरीर आदिक के दोनों ही कारकत्व का अयोग है; उसी को दिखाते हुए आचार्य कहते हैं१. अविद्यमान कार्य के उत्पादक हेतु को कारक हेतु कहते हैं। पहले से विद्यमान पदार्थ को प्रगट करने वाले हेतु को व्यञ्जक कहते हैं। 2. बृहस्पति को पुरन्दर कहते हैं और उसके अनुयायी चार्वाक को पौरन्दर कहते हैं। इसके अतिरिक्त पुरन्दर नाम के एक चार्वाक दार्शनिक का मध्यकाल में अस्तित्व रहा है जिसका उल्लेख आचार्य कर रहे हैं तथा अन्यत्र भी शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह आदि ग्रन्थों में इसका उल्लेख है। दृष्टव्य - डा. एन.के. देवराज - भारतीय दर्शन, पृ. 138, चतुर्थ संस्करण 1982, लखनऊ।