________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक-१३३ * भिन्नप्रमाणवेद्यत्वादित्यप्येतेन वर्णितम्। - साधितं बहिरंतश्श प्रत्यक्षस्य विभेदतः // 109 // - बहिरंतर्मुखाकारयोरिद्रियजस्वसंवेदनयोर्भेदेन प्रसिद्धौ सिद्धमिदं साधनं वर्णनीयं देहचैतन्ये भिन्ने भिन्नप्रमाणवेधत्वादिति। करणजज्ञानवेद्यो हि देहः स्वसंवेदनवेद्यं चैतन्यं प्रतीतमिति सिद्धं साधनं / स्वयं स्वसंवेदनवेद्येन परैरनुमेयेनाभिन्नेन चैतन्येन व्यभिचारीति न युक्तं, स्वसंवेद्यानुमेयस्वभावाभ्यां तस्य भेदात् / तत एवैकस्य प्रत्यक्षानुमानपरिच्छेद्येनामिना न अतः ये चारों भिन्न-भिन्न हैं- परन्तु शरीर और आत्मा में सामान्य भेद है, असाधारण नहीं है- वे तत्त्वान्तर नहीं हैं- उनको तत्त्वान्तर सिद्ध करने में दिया गया हेतु असिद्ध हेत्वाभास है। जैनाचार्य इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि पृथ्वी आदि को पृथक् सिद्ध करने में और शरीर एवं आत्मा को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने में विशेषता का अभाव है- दोनों पक्ष समान हैं। स्याद्वाद सिद्धान्त में विशेष लक्षणों से शरीर और आत्मा दोनों एक नहीं हैं- अपितु भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं। उक्त कथन से यह भी वर्णन कर दिया गया है कि शरीर और आत्मा भिन्न द्रव्य हैं- क्योंकि वे दोनों भिन्न प्रमाणों के द्वारा जाने जाते हैं। बाह्य इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान से शरीर जाना जाता है- और उससे भिन्न अंतरंग स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा उपयोग स्वरूप आत्मा जाना जाता है अतः भिन्नभिन्न ज्ञान का विषय होने से दोनों भिन्न-भिन्न हैं॥१०९॥ बाह्य पदार्थों का उल्लेख करने वाला इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष है तथा अंतरंग पदार्थों का उल्लेख कर (भीतरी तत्त्वों का लक्ष्यकर) अनुभव करने वाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। इस प्रकार इन दोनों में भेद से प्रसिद्धि हो जाने पर, यह हेतु भी सिद्ध हुआ कहना चाहिए। जबकि शरीर और आत्मा को विषय करने वाले दोनों ज्ञान भिन्न हैं-तब भिन्न-भिन्न प्रमाणों का विषय होने से शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं। करण (इन्द्रिय) जन्य ज्ञान के द्वारा शरीर जाना जाता है और स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा आत्मा जाना जाता है। इस प्रकार की प्रतीति सिद्ध है- अत: यह हेतु सिद्ध है। शंका-स्वयं आत्मा स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जानी जाती है और अन्य प्राणियों के द्वारा अनुमान ज्ञान के द्वारा जानी जाती है। इस प्रकार स्वसंवेदन और अनुमान दोनों भिन्न-भिन्न प्रमाणों के द्वारा चैतन्य स्वसंवेद्य और अनुमेय होने से 'भिन्न ज्ञान का विषय होने से शरीर आत्मा से भिन्न है' यह हेतु व्यभिचारी होगा। क्योंकि भिन्न ज्ञान का विषय होने पर भी आत्मा अभिन्न है। इस के प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं, चार्वाक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि एक ही आत्मा के स्वसंवेद्य और अनुमेय स्वभाव के द्वारा भेद हैं। भावार्थ- जैसे पकाना, जलाना, शीत को मिटाना, प्रकाशित करना आदि अग्नि के अनेक स्वभाव हैं- वैसे ही प्रत्येक ज्ञेय में नाना ज्ञानों से जानने योग्य भी भिन्न-भिन्न अनेक स्वभाव हैं। उसी प्रकार आत्मा में भी स्वसंवेद्य और अनुमेय स्वभाव हैं- स्वसंवेद्य स्वभाव स्वसंवेदन ज्ञाता के द्वारा जाना जाता है। अत: भिन्न-भिन्न ज्ञान के द्वारा जानने योग्य वस्तु भिन्न-भिन्न होती है- यह हेतु व्यभिचारी नहीं है। भिन्न-भिन्न ज्ञानों के द्वारा परिच्छेद्य स्वभाव भिन्न-भिन्न ही हैं।